________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 285 दूषणाभासता त्वत्र दृष्टांतादिसमर्थना। युक्ते साधनधर्मेपि प्रतिषेधमलब्धितः // 352 // साध्यदृष्टांतयोर्धर्मविकल्पादुपवर्णितात् / वैधयं गवि सादृश्ये गवयेन यथा स्थिते // 353 // साध्यातिदेशमात्रेण दृष्टांतस्योपपत्तितः। साध्यत्वासंभवाच्चोक्तं दृष्टांतस्य न दूषणं / / 354 / / क्रियावानात्मा क्रियाहेतुगुणाश्रयत्वाल्लोष्ठवदित्यादौ दृष्टांतादिसमर्थनयुक्ते साधनधर्मे प्रयुक्ते सत्यपि साध्यदृष्टांतयोर्धर्मविकल्पादुपवर्णिताद्वैधhण प्रतिषेधस्य कर्तुमलब्धेः किंचित्साधादुपसंहारसिद्धेः। तदाह न्यायभाष्यकार: - “अलभ्यः सिद्धस्य निह्नवः सिद्धं च किंचित्साधादुपमानं यथा गौस्तथा गवय” इति / दूषणसदृश दीखना दूषणाभास है। इनमें दृष्टान्त आदि की सामर्थ्य से युक्त अथवा विपक्ष में हेतु की व्यावृत्ति रूप से पक्ष में हेतु के रहने रूप समर्थन और दृष्टान्त आदि से युक्त समीचीन हेतुरूप धर्म को वादी द्वारा प्रयुक्त किये जाने पर भी पुनः साध्य और दृष्टान्त के व्याख्यान में केवल धर्मविकल्प से तो प्रतिषेध नहीं किया जा सकता है। (गौतमसूत्र है कि कुछ थोड़ा सा दृष्टान्त और पक्ष का व्याप्ति सहित साधर्म्य मिल जाने से वादी द्वारा उपसंहार की सिद्धि हो जाने से पुनः प्रतिवादी द्वारा व्याप्ति निरपेक्ष, उसके वैधर्म्य से ही निषेध नहीं किया जा सकता है।) जैसे कि गाय में गवय (रोझ) के साथ सादृश्य व्यवस्थित हो जाने पर पुनः किसी सास्ना धर्म के द्वारा विधर्मपना तो धर्मविकल्प का कुचोद्य उठा नहीं सकते हैं। अतः उत्कर्षसमा, अपकर्षसमा, वर्ण्यसमा, अवर्ण्यसमा, विकल्पसमा, साध्यसमा ये उठाये गये दूषण समीचीन नहीं हैं। वर्ण्यसमा, अवर्ण्यसमा, साध्यसमा, इन तीन जातियों के असत् उत्तरपन को पुष्ट करने वाला दूसरा समाधान भी है। केवल साध्य के अतिदेश मात्र से ही दृष्टान्त का दृष्टान्तपना सिद्ध हो चुका है अतः दृष्टान्त को पुनः साध्यपना असम्भव है। अत: प्रतिवादी द्वारा कहा गया दृष्टान्त का दूषण उचित नहीं है। दृष्टान्त के सभी धर्म पक्ष में नहीं मिलते हैं। वृत्तिकार के अनुसार इन दो सूत्रों को छहों जातियों में या तीन जातियों में घटा लेना चाहिए॥३५२-३५४॥ आत्मा क्रियावान् है, क्रिया के हेतु हो रहे गुणों का आश्रय होने से, पत्थर के समान या शब्द अनित्य है, कृतक होने से इत्यादि अनुमान वाक्यों में दृष्टान्त आदि सम्बन्धी समर्थन से युक्त साधन धर्म के प्रयुक्त होने पर भी साध्य और दृष्टान्त के उक्त वर्णन किये गये विकल्प से वैधर्म्य कर के प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध का करना प्राप्त नहीं है। क्योंकि कुछ एक सधर्मापन के मिल जाने से उपसंहार पूर्वक साध्य की सिद्धि हो चुकी है। उसी बात को न्यायभाष्यकार वात्स्यायन ने कहा है - "किंचित्साधादुपसंहार सिद्धेवैधादप्रतिषेधः” इस सूत्र के भाष्य में अलभ्य से प्रारम्भ कर वक्तुमिति तक इस प्रकार स्पष्ट कहते हैं कि सिद्धि प्राप्त पदार्थ का अपलाप या अविश्वास करना अलभ्य है, जब कि कुछ थोड़े से साधर्म्य से उपमान सिद्ध हो चुका है। जैसे गौ है वैसा गवय (रोझ) है। इस प्रकार उपमान उपमेय भाव बन चुकने पर और गवय के धर्मों का विकल्प उठाकर पुन: कुचोद्य किसी के ऊपर नहीं धकेल दिया जाता है। इसी प्रकार दृष्टान्त, व्याप्ति, पक्षधर्मता आदि की सामर्थ्य से युक्त हो रहे साध्य, ज्ञापक हेतु, स्वरूप धर्म के प्रयुक्त हो चुकने पर पुनः प्रतिवादी द्वारा साध्य और दृष्टान्त के धर्मविकल्प से वैधर्म्य के द्वारा प्रतिषेध को कह नहीं सकते।