Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

View full book text
Previous | Next

Page 306
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 293 क्वचिदनुमानात्प्रवृत्तिं च स्वीकुर्वता तद्धर्मसदृशस्तद्धर्मोनुमंतव्य इति क्रियाकारणवायुवनस्पतिसंयोगसदृशो वाय्वाकाशसंयोगोपि क्रि याकारणमेव। तथा च प्रतिदृष्टांते नाकाशेन प्रत्यवस्थानमिति प्रतिदृष्टांतसमप्रतिषेधवादिनोभिप्रायः। स चायुक्तः। प्रतिदृष्टांतसमस्य दूषणाभासत्वात् प्रकृतसाधनाप्रतिबंधित्वात्तस्य, प्रतिदृष्टांतो हि स्वयं हेतुः साधकः साध्यस्य न पुनरन्येन हेतुना तस्यापि दृष्टांतांतरापेक्षायां दृष्टान्तान्तरस्य वा परेण हेतुना साधकत्वे परापरदृष्टान्त हेतु परिकल्पनायामनवस्थाप्रसंगात् / तथा दृष्टान्तोपि न परेण हेतुना साधकः प्रोक्तानवस्थानुषंगसमानत्वात्ततो दृष्टान्तेऽपि प्रतिदृष्टान्त इव हेतुवचनाभावाद्भवतो दृष्टांतोस्तु हेतुक एव / तदाहोद्योतकरः। प्रतिदृष्टांतस्य हेतुभावं प्रतिपद्यमानेन दृष्टांतस्यापि हेतुभावोम्युपगंतव्यः। हेतुभावश्च साधकत्वं स च कथमहेतुर्न स्यात्। यद्यप्रतिषिद्धः स्यात् अप्रतिसिद्धश्चायं के द्वारा उस सजातीय पदाथ के धर्मों के सदृश ही अन्य उन सजातीय पदार्थों के धर्म स्वीकार करने पड़ेंगे। और ऐसा होने पर क्रिया के कारणभूत वायु वनस्पति संयोग के समान जाति वाला ही वायु आकाश संयोग भी क्रिया का कारण होगा ही। वैसा होने पर प्रतिकूल दृष्टांत आकाश से प्रतिवादी द्वारा वादी के ऊपर प्रत्यवस्थान उठाया जा सकता है। ऐसा प्रतिदृष्टांत समप्रतिषेध को कहने वाले जाति वादी का अभिप्राय है। प्रतिवादी द्वारा वह प्रति दृष्टांतसम प्रतिषेध उठाना समुचित नहीं है। क्योंकि प्रतिदृष्टांतसम जाति समीचीन दूषण नहीं होकर दूषण सदृश दीखने से दूषणाभास है। वह प्रकरण प्राप्त साधन की प्रतिबंधिका नहीं हो सकती है। प्रकृत के साधन को बिगाड़ती नहीं है। वह दूषण नहीं है (किसी मनुष्य की सुन्दरता को अन्य पुरुष का काणापन नहीं बिगाड़ देता है)। प्रतिवादी द्वारा दिया गया प्रतिदृष्टांत आकाश तो दूसरे किसी की अपेक्षा नहीं कर स्वयं ही नित्यत्व साध्य का साधक माना जाता है। पुन: अन्य हेतु के द्वारा तो वह प्रतिदृष्टांत साध्य का साधक नहीं है। .. अन्यथा उस अन्य साध्यसाधक दृष्टांतरूप हेतु को भी दृष्टांतों की अपेक्षा हो जाने पर, उस अन्य दृष्टांत को भी तीसरे, चौथे आदि भिन्न-भिन्न दृष्टांतरूप हेतुओं करके साधकपना मानते-मानते उत्तरोत्तर दृष्टांतस्वरूप हेतुओं की कल्पना करने से अनवस्था दोष का प्रसंग आता है। अतः प्रतिदृष्टांत स्वत: ही साध्य का साधक है और दृष्टान्त पत्थर भी दूसरे हेतु या दृष्टांत के द्वारा साध्य का साधक नहीं है। किन्तु स्वतः सामर्थ्य से अनित्यत्व का साधक है। अन्यथा पूर्व प्रकार से कथित अनवस्था का प्रसंग समान रूप से लागू हो जायेगा। अतः प्रतिवादी के द्वारा कहे गये आकाश दृष्टांत में जैसे उसके समर्थक हेतु का कथन करना आवश्यक नहीं है उसी प्रकार वादी के दृष्टांत में भी हेतु वचन की आवश्यकता नहीं है। अत: आपके यहाँ पत्थर भी साधक का हेतु दृष्टांत हो सकता है। जब प्रतिवादी ने पत्थर को दृष्टांत स्वीकार कर लिया तो प्रतिवादी आकाश को अब प्रतिदृष्टांत नहीं बना सकता है। उसी बात को उद्योतकर पण्डित यों कह रहे हैं कि स्वकीय प्रतिदृष्टांत को साध्य की हेतुतारूप से समझने वाले प्रतिवादी के द्वारा वादी के दृष्टांत को भी स्व साध्य की हेतुता स्वीकार कर लेनी चाहिए।

Loading...

Page Navigation
1 ... 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358