Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 335
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 322 अनैकांतिकता हेतोरेवं चेदुपपद्यते / प्रतिषेधोपि सा तुल्या ततोऽसाधक एव सः॥४५१॥ विधाविव निषेधेपि समा हि व्यभिचारिता / विशेषस्योक्तितश्चायं हेतोर्दोषो निवारितः॥४५२॥ एवं भेदेन निर्दिष्टा ज्ञातयो दिष्टये तथा / चतुर्विंशतिरन्याश्चानंता बोध्यास्तथा बुधैः // 453 // नैताभिर्निग्रहो वादे सत्यसाधनवादिनः / साधनाभं ब्रुवाणस्तु तत एव निगृह्यते // 454 // शब्द की अनुपलब्धि के निमित्त का अभाव होने पर भी उस समय शब्द की अनुपलब्धि है (हेतु) / जैसे घट की उत्पत्ति के पूर्व समय में घट की अनुपलब्धि होने से घट का उत्पन्न होना माना जाता है। (अन्वय दृष्टान्त) जो पूर्व में नहीं था, पुन: कारणों से उत्पन्न हुआ है, वही पदार्थ का जन्म कहलाता है। अर्थात् .. उच्चारण के पर्व शब्द का सद्भाव नहीं था. ताल ओष्ठ आदि कारणों से उत्पन्न हआ है। कारणों के द्वारा किसी व्यवधायक (व्याघातक) पदार्थ का निराकरण करके पूर्व में विद्यमान शब्द की अभिव्यक्ति नहीं की जाती है। अर्थात् जैसे बादलों के हट जाने से सूर्य प्रकट होता है। वैसे बाधक कारणों के हट जाने से शब्द * * उत्पन्न होता है ऐसा कहना उचित नहीं है।४४९-४५०॥ पुरुष के प्रयत्न के द्वारा आधारको (शब्द के व्याघात कारणों के) दूर हो जाने से पूर्व काल में विद्यमान पदार्थ की अभिव्यक्ति होती है। और बहुत से पदार्थों की प्रयत्न से नवीन उत्पत्ति भी होती है। इसलिए शब्द का अनित्यपना सिद्ध करने में दिया गया हेतु व्यभिचारी (अनैकान्तिक हेत्वाभास) है। इस प्रकार हेतु की अनैकान्तिकता उत्पन्न होती है। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहने पर तो निषेध में भी अनैकांतिक दोष समान रूप से लागू होता है। इसलिए तुम्हारा कार्य सम जाति भी स्वपक्ष की साधक नहीं है, अपितु असाधक ही है।४५१॥ तथा विधि के समान निषेध में भी समान व्यभिचार दोष है। विशेष को कहने वाले हेतु के कथन से यह दोष निवारित हो सकता है अर्थात् प्रतिवादी कहता है कि प्रयत्न के द्वारा शब्द उत्पन्न होता है, अभिव्यक्त नहीं होता है। नैयायिक के पास इसका निर्णायक कोई विशेष हेतु नहीं है। नैयायिक भी इसके प्रत्युत्तर में कहता है - प्रयत्न के द्वारा शब्द उत्पन्न नहीं होता है अभिव्यक्त होता है। इसके निर्णय में भी शब्द को अनित्य कहने वाले के पास कोई विशेष हेतु नहीं है (इसलिए) दोनों पक्षों में विशेष हेतु नहीं होने से यह हेतु अनैकान्तिक हो जाता है।।४५२॥ इस प्रकार भेद रूप से शिष्यों को समझाने के लिए चतुर्विंशति (24) जातियों का दिङ्मात्र (इशारा रूप से) कथन किया है। इसी प्रकार बुद्धिमानों को अनन्त जातियाँ जान लेनी चाहिए। अर्थात् जितने भी संगतिहीन, प्रसंगरहित, अनुपयोगी असत् उत्तर हैं, वे सब न्यायसिद्धान्त अनुसार जातियों में परिगणित हैं।।४५३॥ जैनाचार्य कहते हैं कि इन चौबीस या अनन्त जातियों के द्वारा वाद में सत्य हेतु का कथन करने वाले वादी का निग्रह (पराजय) नहीं हो सकता। क्योंकि दूसरों को पराजित करने के लिए और स्वपक्ष की

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