________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 326 वा साम्यं प्रातिभैर्व्यवस्थापनाद्वयोरज्ञानस्य निश्चयात्। एवं तर्हि साधुसाधने प्रयुक्ते यत्परस्य साधाभ्यां प्रत्यवस्थानं दूषणाभासरूपं तजाते: सामान्यलक्षणमस्तु निरवद्यत्वादिति चेत्, मिथ्योत्तरं जातिरित्येतावदेव जातिलक्षणमकलंकप्रणीतमस्तु किमपरेण। “तत्र मिथ्योत्तरं जातियथानेकांतविद्विषाम्” इति वचनात् // तथा सति अव्याप्तिदोषस्यासंभवानिरवद्यमेतदेवेत्याहसांकर्यात् प्रत्यवस्थानं यथानेकांतसाधने। तथा वैयधिकर्येण विरोधेनानवस्थया // 459 // भिन्नाधारतयाभाभ्यां दोषाभ्यां संशयेन च। अप्रतीत्या तथाऽभावेनान्यथा वा यथेच्छया।४६०। वस्तुतस्तादृशैर्दोषैः साधनाप्रतिघाततः / सिद्धं मिथ्योत्तरत्वं नो निरवद्यं हि लक्षणम् // 461 // के द्वारा जो कुछ भी कहने वाले वा चुप होकर बैठ जाने वाले दोनों के ही समानता की व्यवस्था होने से, दोनों के ही अज्ञान का निश्चय है। अर्थात् दोनों की ही अज्ञानता प्रगट हो रही है। अत: जाति का प्रयोग करना उचित नहीं है। कोई (नैयायिक) कहता है कि इस प्रकार व्यवस्था होने पर तो वादी के द्वारा समीचीन हेतु का प्रयोग करने पर दूसरे प्रतिवादी का साधर्म्य और वैधर्म्य के द्वारा प्रत्यवस्थान उठाना दूषणाभासरूप होते हुए वह जाति का सामान्य लक्षण है क्योंकि दूषणांभास जाति है। जाति का यह लक्षण निर्दोष है। इस प्रकार किसी के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि अकलंकदेव के द्वारा कथित “मिथ्योत्तरं' यह जाति का लक्षण समीचीन है। दूसरों के द्वारा कथित जाति के लक्षण से क्या प्रयोजन है। क्योंकि वह लक्षण निर्दोष नहीं है। अकलंक देव ने कहा भी है कि “मिथ्या उत्तर देना ही जाति है।" जैसा स्याद्वाद सिद्धान्त से द्वेष रखने वाले नैयायिकों ने स्वीकार किया है। इसलिए मिथ्योत्तर देना ही जाति का समीचीन लक्षण है। अकलंकदेव के सिद्धान्तानुसार “मिथ्योत्तर' जाति के लक्षण में अव्याप्ति दोष की असंभवता होने से यह लक्षण निर्दोष है, इसको कहते हैं - जिस प्रकार जैन सिद्धान्त के अनुसार अनेकान्त की सिद्धि हो जाने पर प्रतिवादी के द्वारा सांकर्य से प्रत्यवस्थान उठाया जाना तथा व्यतिकरपने से दूषणाभास उठाया जाना जाति है, उसी प्रकार विरोध दोष, अनवस्था दोष, भिन्न अधिकरण दोष, उभय दोष, संशय दोष, अप्रतीति दोष, अभाव दोष अथवा अपनी इच्छानुसार अन्य प्रकार के चक्रक दोष अन्योऽन्याश्रय दोष, आत्माश्रय दोष, व्याघात दोष आदि दोषों का कथन करके प्रतिषेध रूप उपालंभ देना भी जातियाँ हैं। वास्तविक रूप से विचार करने पर प्रत्यक्ष प्रमाण, अनुमान प्रमाण और आगम प्रमाण के द्वारा अनेक धर्मों के साथ तदात्मक सम्बन्ध रखने वाले वस्तु की सिद्धि हो जाने पर उन सांकर्य आदि दोषों के द्वारा अक्षुण्ण अनेकान्त की सिद्धि का प्रतिघात नहीं होता है। इसलिए हमारे जैन सिद्धान्त में स्वीकृत 'मिथ्योत्तर' ही जाति का लक्षण निर्दोष सिद्ध है // 459-461 // भावार्थ - सर्व पदार्थों की एक साथ प्राप्ति होना संकर दोष है। अथवा परस्पर अत्यन्त अभाव समान अधिकरण धर्म में एकत्र समावेश होना संकर दोष है।