Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 340
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 327 न चैवं परलक्षणस्याव्याप्तिदोषाभाव इत्याह;परोक्तं पुनरव्याप्तिप्रोक्तेष्वेतेष्वसंभवात् / ततो न निग्रहस्थानं युक्तमेतदिति स्थितम् // 462 // परोक्तं पुनर्जातिसामान्यलक्षणमयुक्तमेव, संकरव्यतिकरविरोधानवस्थावैयधिकरण्योभयदोषसंशयाप्रतीत्यभावादिभिः प्रत्यवस्थानेषु तस्यासंभवात् / ततो न निग्रहस्थानमेतद्युक्तं तात्त्विके वादे, प्रतिज्ञाहान्यादिवच्छलवदसाधनांगदोषोद्भावनवच्चेति॥ तथा च तात्त्विको वादः स्वेष्टसिद्ध्यवसानभाक्। पक्षेयत्तात्वयुक्त्यैव नियमानुपपत्तितः।४६३। परस्पर में एक दूसरे के विषय में गमन करना व्यतिकर दोष है। उत्तरोत्तर धर्म की अपेक्षा विश्रान्ति (विराम) का अभाव होना अनवस्था दोष है। विधि और निषेध इन दो विरोधी धर्मों का एक साथ रहना विरोध दोष है। इस प्रकार परस्पर विरोधी धर्मों का कथन करके जिन सिद्धान्त के प्रति दूषण देना उपयुक्त नहीं है। क्योंकि स्याद्वाद सिद्धान्त में यह दोष प्राप्त नहीं हो सकता। अनेकान्त सिद्धान्त में अस्ति-नास्ति आदि एक वस्तु में रहने का कोई विरोध नहीं है। अतअनेकान्त में दोष उठाना मिथ्या उत्तर है। इसलिए 'मिथ्योत्तर' ही जाति का लक्षण समीचीन है। - इस प्रकार नैयायिक के द्वारा कथित जाति के लक्षण में अव्याप्ति दोष का अभाव नहीं है। उसी को कहते हैं - नैयायिकों के द्वारा कथित जाति का लक्षण अव्याप्ति दोष से युक्त है। क्योंकि उपरि उक्त संकर व्यतिकर आदि दोषों में जाति के लक्षण का घटित होना संभव नही है। इसलिए जाति का उत्थापन करके निग्रह स्थान करना युक्त नहीं है। इससे यह सिद्ध होता है कि स्वपक्ष सिद्धि और परपक्ष निराकरण से ही दूसरे का निग्रहं हो जाना न्यायसंगत है॥४६२॥ नैयायिकों के द्वारा कथित जाति का सामान्य लक्षण युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि संकर, व्यतिकर, विरोध, अनवस्था, वैयधिकरण्य, उभय दोष, संशय, अप्रतिपत्ति, अभाव आदि के द्वारा उत्थापित प्रत्यवस्थानों (उलाहनों) में उस लक्षण का घटना असंभव है। इसलिए तात्त्विक वाद में जाति के द्वारा वादी का निग्रह हुआ, यह मानना उचित नहीं है। जैसे-प्रतिज्ञा हानि, प्रतिज्ञान्तर आदि और असाधनांगवचन, अदोषोद्भावन, छल इनके द्वारा निग्रह करना युक्त नहीं है अर्थात् परपक्ष के निराकरण पूर्वक स्वपक्ष को सिद्ध करना ही सभ्य पुरुषों में दूसरे का निग्रह होना माना है। उस प्रकार व्यवस्था करने पर तत्त्वों को विषय करने वाला वाद अपनी अभीष्ट सिद्धि के लिए है। संसार में अनेक वादी, प्रतिवादियों के विवाद को प्राप्त पक्ष असंख्य हैं। परन्तु आठ दस आदि की संख्या का नियम नहीं है।४६३॥

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