________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 328 एवं तावत्तात्त्विको वादः स्वाभिप्रेतपक्षसिद्धिपर्यंतभावावस्थितः पक्षेयत्तायाः कर्तुमशक्तेनियमानुपपत्तितश्च न सकलपक्षसिद्धिपर्यंतः कस्यचिज्जयो व्यवस्थितः॥ सांप्रतं प्रातिभे वादे निग्रहव्यवस्थां दर्शयति यस्तूक्तः प्रातिभो वादः संप्रातिभपरीक्षणः। निग्रहस्तत्र विज्ञेयः स्वप्रतिज्ञाव्यतिक्रमः // 464 // यथा पद्यं मया वाच्यमाप्रस्तुतविनिश्चयात् / सालंकारं तथा गद्यमस्खलद्रूपमित्यपि // 465 / / पंचावयववाक्यं वा त्रिरूपं वान्यथापि वा। निर्दोषमिति वा संधास्थलभेदं मयोद्यते // 466 // जिस प्रकार विवादप्राप्त वस्तु की प्राप्ति तक लौकिक वाद रहता है, उसी प्रकार तत्त्व निर्णय सम्बन्धी वाद भी स्वकीय अभीष्ट पक्ष की सिद्धि होने पर्यन्त व्यवस्थित है। इसलिए पक्षों की इयत्ता का निर्णय करना शक्य नहीं है जैसे नियम की अनुपपत्ति है अर्थात् इतने ही पक्ष हैं- ऐसा नियम नहीं हो सकता। भावार्थ - जैसे शब्द नित्य है, अनित्य है, एक है, अनेक है, आकाश का गुण है, पुद्गल की पर्याय है इत्यादि अनेक पक्ष संभव हैं। इसलिए सकल पक्षसिद्धि पर्यन्त किसी की जय की व्यवस्थिति नहीं है। इस प्रकार अभिमान प्रयुक्त वाद का प्रकरण समाप्त हुआ। इस समय प्रतिभा वाद में निग्रह व्यवस्था को दिखाते हैं। नवीन, नवीन उन्मेषशालिनी बुद्धि को प्रतिभा कहते हैं। सम्यक् प्रकार से प्रतिभा सम्बन्धी चातुर्य का परीक्षण करने वाला वाद प्रांतिभ कहा जाता है। उस प्रतिभागोचर वाद में स्वकीय स्वीकृत प्रतिज्ञा का उल्लंघन करना ही निग्रह है, ऐसा समझना चाहिए / / 464 // प्रातिभ शास्त्रार्थ के प्रारंभ के पूर्व यह प्रतिज्ञा कर ली जाती है कि जिस प्रकार का पद्य, इन्द्रवज्रा, बसन्ततिलका आदि छन्द प्रस्ताव प्राप्त अर्थ का विशेष निश्चय होने तक मेरे द्वारा वाच्य (कहने योग्य) है, उसी प्रकार अलंकार सहित छंद तुमको भी कहने होंगे // 465 / / जैसा अस्खलित स्वरूप धारावाही रूप से ध्वनि, लक्षणा, व्यंजना, अलंकार आदि से युक्त गद्य को कहूँगा, उसी प्रकार का गद्य तुमको कहना पड़ेगा। अथवा प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय, निगमन इन पाँच अवयव युक्त वाक्यों को कहूँगा- वैसा ही वाक्य तुम को भी कहना पड़ेगा॥४६६॥ जैसा निर्दोष प्रतिज्ञा हेतु उदाहरण स्वरूप वाक्य मेरे द्वारा कहा जायेगा, वैसा ही प्रतिज्ञावाक्य स्थलके भेद को लिये हुए निर्दोष वाक्य तुमको कहना पड़ेगा।