________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 330 एवं प्रपंचेन प्रथमाध्यायं व्याख्याय संगृह्णन्नाहसमुद्दिष्टो मार्गस्त्रिवपुरभवत्वस्य नियमाद्विनिर्दिष्टा दृष्टिर्निखिलविधिना ज्ञानममलम् / प्रमाणं संक्षेपाद्विविधनयसंपच्च मुनिना सुगृह्याद्येऽध्यायेऽधिगमनपथ: स्वान्यविषयः॥४७१॥ इति प्रथमाध्यायस्य पंचममाह्निकं समाप्तम् // 5 // इति श्रीविद्यानंद-आचार्यविरचिते तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालङ्कारे प्रथमोऽध्यायः समाप्तः॥१॥ इस प्रकार विस्तारपूर्वक प्रथम अध्याय का व्याख्यान करके श्री विद्यानन्द आचार्य संक्षेप से प्रथम अध्याय के संगृहीत अर्थ को कहते हैं - उमास्वामी आचार्य देव ने इस प्रथम अध्याय में नियम से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीन स्वरूप शरीर वाले को अभव (मोक्ष) का मार्ग कहा अर्थात् सर्वप्रथम मोक्षमार्ग का उपदेश दिया। उसके बाद सम्पूर्ण विधि से सम्यग्दर्शन का कथन किया। अर्थात् सम्यग्दर्शन का लक्षण और उसकी उत्पत्ति के कारणों का निरूपण किया। तदनन्तर संक्षेप से निर्मल ज्ञान का तथा ज्ञान ही प्रमाण है, अतः प्रमाण का वर्णन किया। उसके अनन्तर संक्षेप से द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक भेद रूप दो प्रकार के नय की सम्पत्ति रूप सात नयों का विशेष रूप से कथन किया है। इस प्रकार प्रथम अध्याय में रत्नत्रय और प्रमाण एवं नयों को ग्रहण करके संक्षेप से कथन किया है। जगत् में समीचीन ज्ञप्ति कराने का मार्ग स्वयं को और अन्य को विषय करने वाला प्रमाण ज्ञान ही है // 471 / / इस प्रकार इस श्लोक में विद्यानन्द आचार्य ने अन्तिम उपसंहार करते हुए प्रथम अध्याय के सम्पूर्ण विषय का कथन किया है। इस प्रकार प्रथम अध्याय का पाँचवाँ आह्निक पूर्ण हुआ। इस प्रकार सम्पूर्ण दर्शनशास्त्रों की ज्ञप्ति को धारने वाले श्री विद्यानन्द आचार्य द्वारा विशेष रूप से विरचित तत्त्वार्थ श्लोक वार्त्तिक अलंकार में प्रथम अध्याय का विवरण पूर्ण हुआ॥१॥ श्री जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों में अनुरक्त चित्त वाली, श्री वीर सागर आचार्य के द्वारा दीक्षित, इन्दुमती आर्यिका की शिष्या सुपार्श्वमती आर्यिका ने इस श्लोकवार्त्तिक का हिन्दी अनुवाद किया।