Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 342
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 329 यथा संगरहान्यादिनिग्रहस्थानतोप्यसौ। छलोक्त्या जातिवाच्यत्वात्तथा संधाव्यतिक्रमा॥४६७।। यथा द्यूतविशेषादौ स्वप्रतिज्ञाक्षतेर्जयः। लोके तथैव शास्त्रेषु वादे प्रातिभगोचरे // 468 // द्विप्रकारस्ततो जल्पस्तत्त्वप्रातिभगोचरात्। नान्यभेदप्रतिष्ठानं प्रक्रियामात्रघोषणात् // 469 / सोऽयं जिगीषुबोधाय वादन्यायः सतां मतः। ' प्रकर्तव्यो ब्रुवाणेन नयवाक्यैर्यथोदितैः॥४७०॥ जिस प्रकार प्रतिज्ञाहानि आदि निग्रहस्थानों से भी निग्रह माना जाता है, अथवा छलपूर्वक कथन करने से या जाति द्वारा वाच्यता प्राप्त हो जाने से वह निग्रह माना जाता है, उसी प्रकार अपनी की गयी प्रतिज्ञा का व्यतिक्रमण कर देने से भी निग्रह हो जाता है। जिस प्रकार लोक में छूतविशेष आदि से अपनी स्वीकृत प्रतिज्ञा की क्षति हो जाने से दूसरे वादी की विजय हो जाती है, उसी प्रकार शास्त्रों में भी प्रतिभा प्राप्त पदार्थों का विषय करने वाले वाद में अपनी प्रतिज्ञा की हानि कर देने से स्वकीय पराजय और दूसरों की विजय हो जाती है।४६७-४६८॥ - अत: तत्त्व और प्रतिभा में प्राप्त पदार्थों का विषय करने वाला होने से जल्प नामक शास्त्रार्थ दो प्रकार का है। भिन्न-भिन्न प्रकारों से केवल प्रक्रिया की घोषणा कर देने मात्र से अन्य भेदों की प्रतिष्ठा नहीं हो सकती अर्थात् तात्त्विक और प्रातिभ यह दो प्रकार का जल्प ही यथार्थ है॥४६९॥ ____श्री विद्यानन्द आचार्य प्रारम्भ किये गये तत्त्वार्थाधिगम प्रकरण का उपसंहार करते हैं कि (वह) यह उक्त प्रकार का कहा गया न्यायपूर्वक वाद तो जीतने की इच्छा रखने वाले विद्वानों के प्रबोध के लिए सज्जन पुरुषों के द्वारा मान्य है। तथा सर्वज्ञ की आम्नाय अनुसार यथायोग्य पूर्व में कहे गए नयप्रतिपादक वाक्यों द्वारा कथन करने वाले विद्वानों के द्वारा जल्प स्वरूप शास्त्रार्थ करना चाहिए // 470 //

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