________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 325 निराकरणात्। जातिवादी हि साधनाभासमेतदिति प्रतिपद्यते वा न वा? यदि प्रतिपद्यते य एवास्य साधनाभासत्वहेतुर्दोषोनेन प्रतिपन्न: स एव वक्तव्यो न जातिः, प्रयोजनाभावात् / प्रसंगव्याजेन दोषप्रदर्शनत्वमिति चायुक्तं, अनर्थसंशयात् / यदि हि परेण प्रयुक्तायां जातौ साधनाभासवादी स्वप्रयुक्तसाधनदोषं पश्यन् सभायामेवं ब्रूयात् मया प्रयुक्ते साधने अयं दोषः स च परेण नोद्भावितः किं तु जातिरुद्भावितेति, तदापि न जातिवादिनो जयः प्रयोजनं स्यात्, उभयोरज्ञानसिद्धेः। नापि साम्यं प्रयोजनं सर्वथा जयस्यासंभवे तस्याभिप्रेतत्वादेकांतपराजयाद्वरं संदेह इति वचनात् / यदा तु साधनाभासवादी स्वसाधनदोषं प्रच्छाद्य परप्रयुक्तां जातिमेवोद्भावयति तदापि न तस्य जयः प्रयोजनं साम्यं वा पराजयस्यैव तथा संभवात् / अथ साधनदोषमनवबुध्यमानो जातिं प्रयुक्ते तदा निःप्रयोजनो जातिप्रयोग: स्यात्। यत्किंचन वदतोपि तूष्णींभवतोपि __ अथवा, जाति का प्रयोग करने वाला प्रतिवादी (जातिवादी) वादी के द्वारा प्रयुक्त हेतु को “यह हेत्वाभास है” - ऐसा समझता है या नहीं? समझता है। यदि प्रतिवादी वादी के द्वारा प्रयुक्त हेतु के हेत्वाभास (दोषों) को जानता है, तब तो इस वादी ने इस दोषरूप हेत्वाभास का प्रयोग किया है - ऐसा ही कहना चाहिए। जाति (मिथ्या उत्तर) का प्रयोग नहीं कहना चाहिए, क्योंकि हेत्वाभास के खण्डन करने में जाति के प्रयोग के प्रयोजन का अभाव है। अर्थात् जाति का प्रयोग करने का कोई प्रयोजन नहीं है। जब हेत्वाभास का खण्डन करने से ही जय प्राप्त हो सकती है तब व्यर्थ में जाति का प्रयोग करने से क्या लाभ है? "प्रसंग के छल (बहाने से) के द्वारा दोषों का प्रदर्शन कराने के लिए जाति का प्रयोग किया जाता है"- ऐसा भी कहना उचित नहीं है, अयुक्त है। क्योंकि इस प्रकार कथन करने पर अनर्थ होने की शंका है या संभावना है। क्योंकि यदि दूसरे (प्रतिवादी) के द्वारा प्रयुक्त जाति में हेत्वाभास वादी अपने प्रयुक्त हेतु के दोष को देखता (जानता) हुआ सभा में इस प्रकार कहता है कि - "मेरे द्वारा प्रयुक्त हेतु में यह दोष है।" प्रतिवादी ने उस हेतु के दोषों का उद्भावन तो नहीं किया है। अपितु व्यर्थ में जाति का प्रयोग किया है। ऐसी दशा में अनर्थ होने का संशय है। तथा प्रतिवादी की जय के स्थान में पराजय हो सकती है। इस अवसर पर भी जाति को कहने वाले प्रतिवादी की जीत हो जाना प्रयोजन नहीं है। क्योंकि वादी और प्रतिवादी इन दोनों के अज्ञान की सिद्धि है। अर्थात् वादी को स्वकीय पक्ष की सिद्धि के लिए समीचीन हेतु का ज्ञान नहीं है और प्रतिवादी को दोष के प्रयोग करने का परिज्ञान नहीं है। जब हेत्वाभासों को कहने वाला वादी, स्वकीय हेतु के दोष को छिपाकर दूसरे के द्वारा प्रयुक्त जाति का ही उत्थापन कर देता है, तब भी उस वादी का जय होना वा दोनों का समान बने रहना सिद्ध नहीं हो पाता है। उस प्रकार प्रयत्न करने पर तो वादी का पराजय होना ही संभवता है। . अथवा - वादी के द्वारा प्रयुक्त हेतु के दोषों को नहीं जानने वाला प्रतिवादी यदि वादी के प्रति जाति (छल) का प्रयोग करता है तो वह जाति का प्रयोग निष्फल होता है। क्योंकि प्रतिभा बुद्धि के धारक विद्वानों