Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

Previous | Next

Page 337
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 324 जातिसामान्यलक्षणस्य तत्र दुर्घटत्वात्। साधर्म्यवैधाभ्यां प्रत्यवस्थानं जातिरित्येतद्धि सामान्यलक्षणं जातेरुदीरितं यौगैरेतच्च न सुघर्ट, साधनाभासप्रयोगेपि साधर्म्यवैधाभ्यां प्रत्यवस्थानस्य जातित्वप्रसंगात्। तथेष्टत्वान्न दोष इत्येके। तथाहि-असाधौ साधने प्रयुक्ते यो जातीनां प्रयोग: सोनभिज्ञतया वा साधनदोषः स्यात्, तद्दोषप्रदर्शनार्थत्वाप्रसंगव्याजेनेति / तदप्ययुक्तं / स्वयमुद्योतकरण साधनाभासे प्रयुक्ते जातिप्रयोगस्य क्योंकि असत् उत्तरों का अनन्तपना प्रसिद्ध है। अर्थात् जय प्राप्त न होने पर अनुपयोगी चर्चा करना, गाली देना आदि असमीचीन असत् उत्तर प्रसिद्ध ही हैं। परन्तु नैयायिकों ने संक्षेप से या विशेषत: विशेष रूप से गणना करके चौबीस जातियाँ कही हैं, यह कथन युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि जात्यन्तर असंख्यात जातियों का भी सद्भाव पाया जाता है। इन चौबीस जातियों में ही असंख्यात जातियों का अन्तर्भाव हो जाता है। इसलिए इसमें अतिव्याप्ति आदि कोई दोष नहीं है - ऐसा भी कहना उचित नहीं है। क्योंकि नैयायिकों के सिद्धान्त में जाति का सामान्य लक्षण घटित नहीं हो रहा है। अत: सामान्य लक्षण के घटित नहीं होने से चौबीस अन्तर्जातियों में असंख्यात अन्तर्जातियों का अन्तर्भाव होना असंभव है। साधर्म्य और वैधर्म्य के द्वारा प्रत्यवस्थान (उलाहना) देना जाति है। नैयायिकों ने यही जाति का सामान्य लक्षण न्याय सूत्रा में कहा है। परन्तु यह जाति का लक्षण सुघट (समीचीन) नहीं है (अव्याप्ति अतिव्याप्ति और असंभव दोष से युक्त है)। तथा हेत्वाभास के प्रयोग भी साधर्म्य और वैधर्म्य के द्वारा प्रत्यवस्थान की संभवता होने से हेत्वाभास में भी जातित्व का प्रसंग आयेगा। इसलिए नैयायिकों के द्वारा कथित जाति का सामान्य लक्षण प्रशस्त नहीं है। कोई प्रतिवादी कहता है कि हेत्वाभास के प्रयोग में भी साधर्म्य और वैधर्म्य द्वारा प्रत्यवस्थापना रूप जातिपना इष्ट होने से कोई दोष नहीं है। क्योंकि असाधु में प्रयुक्त साधन में जो जातियों का (असत् उलाहनों) का प्रयोग है, वह अनभिज्ञ होने से साधन का दोष होता है। अर्थात् असमीचीन हेतु (हेत्वाभास) के प्रयोग करने पर जो जातियों का प्रयोग किया गया है, वह हेतु के दोषों की अनभिज्ञता से किया गया इसलिए जातियों का प्रयोग हेतु का दोष समझा जाता है। अथवा प्रसंग के बहाने से उस हेतु के दोषों का प्रदर्शन करने के लिए जातियों का प्रयोग किया गया है। अर्थात् मूर्खता से वा अपने जीतने के चातुर्य से छल-कपट करके जातियों का प्रयोग करना संभव है? इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना युक्तिरहित है। क्योंकि नैयायिकों के सिद्धान्त को जानने वाले उद्योतकर नामक पंडित ने हेत्वाभास का प्रयोग करने के पश्चात् पुन: जाति का प्रयोग करने का निराकरण किया है (निषेध किया) है। अर्थात् वादी के पक्ष का खण्डन करने के लिए विष प्रयोग के समान हेत्वाभास का प्रयोग कर देने पर थप्पड़ मारना, गाली गलोज देने के समान जाति का प्रयोग करना उपयुक्त नहीं है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358