Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 336
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 323 निग्रहाय प्रकल्प्यंते त्वेता जल्पवितंडयोः / जिगीषया प्रवृत्तानामिति यौगा: प्रचक्षते / 455 / तत्रेदं दुर्घटं तावजाते: सामान्यलक्षणं / साधर्येणेतरेणापि प्रत्यवस्थानमीरितम् // 456 // साधनाभप्रयोगेपि तज्जातित्वप्रसंगतः। दूषणाभासरूपस्य जातित्वेन प्रकीर्तने // 457 // अस्तु मिथ्योत्तरं जातिरकलंकोक्तलक्षणा। साधनाभासवादे च नयस्यासम्भवाद्वरे // 458 // युक्तं तावदिह यदनंता जातय इति वचनं तथेष्टत्वादसदुत्तराणामानंत्यप्रसिद्धेः / संक्षेपतस्तु विशेषतस्तु विशेषेण चतुर्विंशतिरित्ययुक्तं, जात्यंतराणामपि भावात् / तेषामास्वेवांतर्भावाददोष इति चेत् न, सिद्धि के लिए हेत्वाभास को कहने वादी वा प्रतिवादी स्वयं हेत्वाभास के द्वारा निगृहीत हो जाता है। इसलिए जातियों का उत्थान करना उपयुक्त नहीं है।४५४॥ नैयायिकों ने वीतराग पुरुषों की कथा (संभाषण) को वाद स्वीकार किया है। उस वाद में प्रमाण और तर्क से साधन और उलाहने दिये जाते हैं। जल्प और वितण्डा रूप भाषण में जातियों का प्रयोग किया जाता है। इसलिए परस्पर में जीतने की इच्छा से प्रवर्त्त रहे वादी, प्रतिवादियों के जल्प और वितण्डा नामक शास्त्रार्थ में उक्त जातियों को निग्रह कराने के लिए समर्थ माना है। इस प्रकार योगा (नैयायिक) स्वकीय सिद्धान्त का कथन करते हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि उसका यह कथन दुर्घट है अर्थात् अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव दोष से रहित लक्षण अपने लक्ष्यों में घटित नहीं होता है। इस लक्षण के अनुसार हेत्वाभास का प्रयोग करने में वादी को जातिपने का प्रसंग आता है, क्योंकि, साधर्म्य और वैधर्म्य के द्वारा उलाहना देना, जाति का सामान्य लक्षण है। जाति में भी साधर्म्य और वैधर्म्य का प्रसंग उठाया जाता है। इसलिए जाति का लक्षण अतिव्याप्ति दोष से युक्त है।४५५-४५६॥ भावार्थ -- नैयायिकों ने हेत्वाभासों की सोलह मूल पदार्थों में गणना की है तथा निग्रहस्थानों में भी हेत्वाभास का पाठ है। परन्तु जाति का लक्षण करते समय वे मूल स्थान और निग्रह स्थान लक्ष्य नहीं हैं (अलक्ष्य हैं)। इसलिए अलक्ष्य में लक्षण का जाना ही अतिव्याप्ति है। . यदि जाति का दूसरा निर्दोष लक्षण दूषणाभास रूप कथन करेंगे तो हेत्वाभास में पूर्व कथित लक्षण के रहने से अतिव्याप्ति का निवारण हो जाता है, क्योंकि हेत्वाभास तो समीचीन दूषण हैं। वस्तुतः दूषण न होकर दूषण सदृश दिखता है वह दूषणाभास नहीं है। अत: इस लक्षण में अतिव्याप्ति नहीं है ऐसा भी नहीं कहना चाहिए। दूषणाभास को जातित्व कहने पर भी अव्याप्ति दोष आता है। अस्तु, उसका कथन ग्रन्थकार स्वयमेव करेंगे / / 457 / / अकलंक देव ने “मिथ्या उत्तर देना जाति है” - यह जाति का निर्दोष लक्षण कहा है। क्योंकि स्वपक्ष की सिद्धि के लिए वादी के द्वारा हेत्वाभास का कथन करने पर भी वादी को जयप्राप्ति होना असंभव है॥४५८॥ तथा नैयायिकों ने उपलक्षण मानकर जो अनेक जातियाँ स्वीकार की हैं, उनका यह कथन युक्त (ठीक) है, अनन्त मिथ्या उत्तरों को देने वाली जातियाँ हम (जैनाचार्यों) को भी इष्ट है।

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