________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 321 अथ कार्यसमा जातिरभिधीयतेप्रयत्नानेककार्यत्वाजाति: कार्यसमोदिता। नृप्रयत्नोद्भवत्वेन शब्दानित्यत्वसाधने // 446 // प्रयत्नानंतरं तावदात्मलाभः समीक्षितः / कुंभादीनां तथा व्यक्तिर्व्यवधानेप्यपोहनात् // 447 / / तद्बुद्धिलक्षणात् पूर्वं सतामेवेत्यनित्यता। प्रयत्नानंतरं भावान्न शब्दस्याविशेषतः॥४४८॥ तत्रोत्तरमिदं शब्दः प्रयत्नानंतरोद्भवः / प्रागदृष्टिनिमित्तस्याभावेप्यनुपलब्धितः / / 449 // सत्त्वाभावादभूत्वास्य भावो जन्मैव गम्यते / नाभिव्यक्तिः सतः पूर्वं व्यवधानाव्यपोहनात् / 450 / और अनित्य दोनों धर्म मानना न्याय सिद्धान्त (मीमांसक मत) के अनुसार विरुद्ध है। अर्थात् “अनित्य धर्म का नित्य अवस्थान रहने से शब्द नित्य है"- यह जातिवाद का कथन दूषणाभास है। इसलिए जीतने की अधिक तृष्णा रखने वाले अत्यधिक वाचाल दूसरे जातिवादियों के द्वारा शब्द में प्रतिष्ठित अनित्य धर्म का नित्यत्व के प्रत्यवस्थान (प्रश्न) उठाकर निराकरण करना शक्य नहीं है। अर्थात् असंगत, विरुद्ध, व्याघातयुक्त और असदुत्तर ऐसे अवाच्य वचनों का कथन करने से किसी को जय प्राप्त नहीं हो सकती है।४४४-४४५ // नित्यसमा जाति के अनन्तर न्यायसिद्धान्त के अनुसार कार्यसमा जाति का कथन किया जा रहा जीव के प्रयत्न से सम्पादन करने योग्य कार्य अनेक प्रकार के होते हैं - इस प्रकार प्रतिषेध उठाना (या कथन करना) कार्यसमा जाति है। जैसे शब्द को अनित्य सिद्ध करने में मनुष्य के प्रयत्न से उत्पन्न होने से शब्द अनित्य है ऐसा कहा जाता है॥४४६॥ शब्द का उच्चारण के पूर्व काल में सद्भाव नहीं था। पुनः जीव प्रयत्न के अनन्तर शब्द का आत्मलाभ देखा जाता है। जैसे घटादिक पूर्व काल में नहीं थे। घटादिक की व्यक्ति (उत्पत्ति) व्यवहित पदार्थों के व्यवधायक अर्थ को प्रयत्न द्वारा पृथक् कर देने पर ही होती है॥४४७॥ - द्वितीय विचार अनुसार सम्भव है कि शब्द भी पुरुष प्रयत्न से उत्पन्न किया गया नहीं होकर नित्य सत् हो रहा व्यक्त कर दिया गया हो। प्रयत्न द्वारा शब्द की उत्पत्ति हुई अथवा अभिव्यक्ति हुई है- इन दोनों मन्तव्यों में से एक अनित्यपने के आग्रह को ही रक्षित रखने में कोई विशेष हेतु नहीं है। उन शब्दों का श्रावणप्रत्यक्ष होना इस स्वरूप से पहले भी विद्यमान हो रहे शब्दों का सद्भाव ही था। इस प्रकार प्रयत्नानन्तर से शब्द की उत्पत्ति हो जाने से अनित्यपना कहना ठीक नहीं है क्योंकि सद्भाव रूप से स्थित शब्द कारणान्तरों से अभिव्यक्त होते हैं, प्रकट होते हैं ऐसा कहना इसमें शब्द की कोई विशेषता नहीं है। अर्थात् शब्द के उत्पादक और अभिव्यंजक कारणों से शब्द की उत्पत्ति और अभिव्यक्ति में कोई विशेषता दृष्टिगोचर नहीं हो रही है। इस प्रकार दोनों कार्यसमान होने से कार्यसमा जाति कहलाती है। इस प्रकार विपर्यय समा, भेद-अभेद समा, आकांक्षा समा, विभाव समा आदि अनेक जातियाँ चौबीस जातियों में ही गर्भित हो जाती हैं॥४४८॥ ... अब सिद्धान्तवादी कार्यसमा जाति का असत् उत्तरपना साधते हैं। इस सम्बन्ध में विद्यानन्द आचार्य कहते हैं- कि शब्द (पक्ष) प्रयत्न के अन्तर उत्पन्न होता है (साध्य) क्योंकि उच्चारण के पूर्व में