Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 333
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 320 अनित्यः शब्द इत्युक्ते नित्यत्वप्रत्यवस्थितिः। जातिर्नित्यसमा वक्तुरज्ञानात्संप्रवर्तते // 439 // शब्दाश्रयमनित्यत्वं नित्यं वानित्यमेव वा। नित्ये शब्दोपि नित्यं स्यात्तदाधारोऽन्यथा क्व तत्।४४०। तत्रानित्येप्ययं दोषः स्यादनित्यत्वविच्युतौ। नित्यं शब्दस्य सद्भावादित्येतद्धि न संगतम्।४४१॥ अनित्यत्वप्रतिज्ञाने तन्निषेधविरोधतः / स्वयं तदप्रतिज्ञानेप्येष तस्य निराश्रयः॥४४२॥ सर्वदा किमनित्यत्वमिति प्रश्नोप्यसंभवी। प्रादुर्भूतस्य भावस्य निरोधिश्च तदिष्यते // 443 // नाश्रयाश्रयिभावोपि व्याघातादनयोः सदा। नित्यानित्यत्वयोरेकवस्तुनीष्टौ विरोधतः॥४४४॥ ततो नानित्यता शब्दे नित्यत्वप्रत्यवस्थितिः। परैः शक्या निराकर्तुं वाचालैर्जयलोलुपैः 445 / है। अर्थात् किसी भी प्रकार से उत्पन्न नहीं हो सकती। कृतक होने से शब्द अनित्य है ऐसा कहने पर जो शब्द के नित्यत्व का प्रत्यवस्थान उठाता है वह नित्यसमा जाति वक्ता के अज्ञान से प्रवर्त्त होती है।४३९॥ अर्थात् नित्यसमा जाति कहना वक्ता का अज्ञान है। शब्द के आश्रय रहने वाला अनित्यत्व क्या सर्वदा रहने वाला होने से नित्य है? या सर्वदा नहीं रहने वाला होने से अनित्य है? यदि शब्दाश्रित रहने वाला अनित्यत्व धर्म नित्य है तब तो नित्य का आधार शब्द भी नित्य है। अर्थात् नित्य धर्म का आधार शब्द भी नित्य होना चाहिए। अन्यथा (यदि शब्द को अनित्य माना जायेगा तो) वह शब्द का अनित्य धर्म किसके आधार पर रहेगा? अर्थात् शब्द को नित्य मानने पर ही अनित्यपन धर्म सदा काल रह सकता है। अन्यथा नहीं / / 440 // ___ शब्द में रहने वाले अनित्य धर्म को क्षणभंगुर माना जायेगा तो भी यह दोष आयेगा। क्योंकि जब शब्द में रहने वाला अनित्य धर्म हमेशा रहने वाला नहीं है तो अनित्य धर्म का नाश हो जाने पर शब्द के नित्यपने का सद्भाव हो जाने से शब्द की नित्यता सिद्ध हो जाती है। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहना न्यायसंगत नहीं है। क्योंकि इस प्रकार कहने वाले प्रतिवादी ने शब्द का अनित्यपना स्वीकार कर लिया है। तभी तो कहता है कि शब्द का अनित्य धर्म नित्य है कि अनित्य है। इसलिए शब्द के अनित्य धर्म को स्वीकार कर लेने पर फिर उसको नित्य कहना अनित्य का निषेध करना प्रतिज्ञा के विरुद्ध पड़ता है। अर्थात् स्वयं अनित्य स्वीकार करके उसका निषेध नहीं कर सकते। अतः प्रतिवादी का कथन पूर्वापर संगतिरहित है। तथा यदि प्रतिवादी शब्द को स्वयं अनित्य स्वीकार नहीं करता है तो उसका अनित्यपने का निषेध करना आश्रय रहित होगा। अर्थात् यदि शब्द को अनित्य नहीं मानता है- तो यह विकल्प किसके आश्रय उठाये जा सकते हैं कि शब्द का अनित्यपना अनित्य है कि नित्य है? इसलिए प्रतिवादी के द्वारा शब्द के अनित्यत्व का खण्डन नहीं हो सकता // 441-442 / / प्रकट रूप से उत्पन्न हुए पदार्थ का नष्ट हो जाना ही अनित्यपना है। ऐसी दशा में शब्द का धर्म अनित्यत्व 'यह नित्य है कि अनित्य है,' इस प्रकार का प्रश्न उठाना भी असंभव दोष युक्त है।।४४३॥ तथा-जातिवादी के यहाँ आधार आधेय भाव भी नहीं बन सकता है। क्योंकि नित्य वस्तु में अनित्यपने का व्याघात है - और अनित्य वस्तु में नित्यपने का व्याघात है। किंच-एक ही वस्तु में नित्य

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