Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji
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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *318 दृष्टांतेपि च यो धर्मः साध्यसाधनभावतः। प्रज्ञायते स एवात्र हेतुरुक्तोर्थसाधनः // 435 // तस्य केनचिदर्थेन समानत्वात्सधर्मता / केनचित्तु विशेषात्स्याद्वैधर्म्यमिति निश्चयः // 436 // हेतुर्विशिष्टसाधर्म्यं न तु साधर्म्यमात्रकं / साध्यसाधनसामर्थ्यभागयं न च सर्वगः // 437 / / सत्त्वेन च सधर्मत्वात् सर्वस्यानित्यतेरणे। दोषः पूर्वोदितो वाच्यः साविशेष: समाश्रयः 438 / तेन प्रकारेणोक्तो यो निषेधस्तस्याप्यसिद्धिप्रसक्तेरसमंजसमशेष स्यादित्यनित्यसमवादिनः कुत इति चेत्, पक्षणासिद्धिं प्राप्तेन समानत्वात्प्रतिषेधस्येति। निषेध्यो ह्यत्र पक्षः प्रतिषेधस्तस्य प्रतिषेधकः कथ्यते धीमद्भिः प्रतिपक्ष इति प्रसिद्धिः तयोश्च पक्षप्रतिपक्षयोः साधर्म्य प्रतिज्ञादिभिर्योग इष्यते तेन विना तयोः सर्वत्रासंभवात्। ततः प्रतिज्ञादियोगाद्यथा पक्षस्यासिद्धिस्तथा प्रतिपक्षस्याप्यस्तु। अथ सत्यपि साधर्म्य किंच, जो धर्म दृष्टान्त में साध्य और साधन भाव से जाना जा रहा है, वही धर्म यहाँ पर साध्य रूप अर्थ को सिद्ध करने वाला हेतु कहा गया है। उस हेतु की दृष्टान्त के किसी अर्थ (धर्म) के साथ समानता होने से सधर्मता बन जाती है (साधर्म्य कहा जाता है)। और दृष्टान्त के किसी-किसी अर्थ के साथ विशेषता हो जाने से वैधर्म्य कहलाता है - यह निश्चय है। इसलिए विशिष्ट रूप से स्थित साधर्म्य ही हेतु की ज्ञापकता का कारण है। केवल साधर्म्य मात्र (विशेषता रहित केवल साधर्म्य) हेतु का सामर्थ्य नहीं है। अतः साध्य को साधने (सिद्ध करने) के सामर्थ्य का विभाग करने वाला विशिष्ट साधर्म्य है। वह हेतु का प्राण है और वह विशिष्ट साधर्म्य हेतु सत्त्व के साधर्म्य मात्र से सम्पूर्ण पदार्थों में प्राप्त नहीं है। अतः सत्त्व के साथ सधर्मता होने से सर्व पदार्थों की अनित्यता (सर्व पदार्थों को अनित्य) कहने में समर्थ नहीं है। तथा पूर्व में अनित्यसमा जाति में कही गयी अविशेषसमा जाति के आश्रय से होने वाले सर्व दोष यहाँ भी कथनं करने योग्य हैं। अर्थात् अविशेषसमा जाति में संभव दोषों का सद्भाव अनित्यसमा जाति में भी पाया जाता है।।४३५-४३८।। सिद्धान्तवादी ने अनित्यसमा जाति को दूषणाभास कहा था। क्योंकि प्रतिवादी के द्वारा जो प्रतिषेध कहा गया है, उस प्रतिषेध की भी असिद्धि का प्रसंग आता है। इसलिए प्रतिवादी का सर्व कथन असमंजस (अनीतिपूर्ण) है। शंका - इस प्रकार अनित्यसमा जाति को कहने वाले का कथन (अनित्य नित्य समवादी का कथन) असमंजस क्यों है? समाधान - प्रतिवादी के द्वारा किया गया प्रतिषेध तो असिद्धि को प्राप्त पक्ष के समान है अर्थात् पक्ष की असिद्धि के समान प्रतिषेध की भी असिद्धि हो जाती है। निषेध करने योग्य प्रतिषेध्य हो रहा अनित्यत्व तो वादी का इष्ट पक्ष माना गया है। और बुद्धिमानों के द्वारा उसका प्रतिषेध करने वाला निषेध प्रतिवादी का अभीष्ट प्रतिपक्ष कहा जाता है। इस प्रकार पक्ष और प्रतिपक्ष प्रसिद्ध हैं। उन पक्ष और प्रतिपक्षों का सधर्मपना प्रतिज्ञा, हेतु आदि के साथ योग होना इष्ट किया गया है। उन प्रतिज्ञा आदि अनुमान के अंगों के बिना पक्ष और प्रतिपक्ष की सर्वत्र असंभवता है। इसलिए जिस प्रकार प्रतिज्ञादि के योग से वादी के पक्ष की असिद्धि है, उसी प्रकार प्रतिवादी के अभिमत प्रतिपक्ष

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