________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *317 एतच्च सर्वमसमंजसमित्याहनिषेधस्य तथोक्तस्यासिद्धिप्राप्तेः समत्वतः। पक्षणासिद्धिमाप्तेनेत्यशेषमसमंजसं // 431 // पक्षस्य हि निषेध्यस्य प्रतिपक्षोभिलप्यते। निषेधो धीधनैरत्र तस्यैव विनिवर्तकः॥४३२॥ प्रतिज्ञानादियोगस्तु तयोः साधर्म्यमिष्यते। सर्वत्रासंभवात्तेन विना पक्षविपक्षयोः // 433 // ततोसिद्धिर्यथा पक्षे विपक्षेपि तथास्तु सा। नोचेदनित्यता शब्दे घटवन्नाखिलार्थगा // 434 // हैं कि यह अनित्यसमा जाति न्याय के द्वारा बाधित है - ऐसा जानना चाहिए। अर्थात् अनित्यसमा जाति दूषणाभास है। सो ही न्याय दर्शन में कहा है कि साधर्म्य से (घट दृष्टान्त का साधर्म्य कृतकत्व से) तुल्यधर्म (अनित्यत्व) की उपपत्ति (उपलब्धि) होने से सर्व पदार्थों के अनित्यत्व का प्रसंग आने से अनित्यसमा जाति होती है। अर्थात् सर्न वस्तु को अनित्य मानने पर वादी के हेतु में व्यतिरेक दृष्टान्त घटित नहीं होता। अत: अनित्यसमा जाति सिद्ध नहीं होती। प्रतिवादी के द्वारा कथित अनित्यसमा जाति असमंजस है (नीति मार्ग से विरुद्ध है)। इसी को जैनाचार्य कहते हैं - असिद्धि को प्राप्त प्रतिषेध्य पक्ष के साधर्म्य से प्रतिवादी द्वारा कथित निषेध की भी असिद्धि होना समान रूप से प्राप्त है अर्थात् जिस किसी भी साधर्म्य से सबको साध्यसहितत्व को स्वीकार करने पर शब्द सम्बन्धी अनित्यत्व के प्रतिषेध की असिद्धि हो जायेगी। इसलिये प्रतिवादी का अनित्य सम जाति उठाना अशेष असमंजस है। अर्थात् न्यायसंगत नहीं है॥४३१॥ यह प्रतिवादी का प्रयास स्वपक्ष का घातक है। .. प्रतिवादी के द्वारा निषेध करने योग्य वादी के पक्ष का निषेध करना धीधनों (बुद्धि रूपी धन के धनी विद्वानों) के द्वारा प्रतिपक्ष माना गया है, कहा गया है। जो कि उस प्रतिवादी के पक्ष की विशेष रूप से निवृत्ति करने वाला है।।४३२॥ / उन दोनों पक्ष प्रतिपक्षों का साधर्म्य तो प्रतिज्ञा, हेतु आदि अवयवों का योग होना कहलाता है। अर्थात् वादी और प्रतिवादी दोनों के ही अनुमान में प्रतिज्ञा आदि अनुमान के अंग विद्यमान हैं। अनुमान के प्रतिज्ञा, हेतु आदि अवयव के बिना सर्वत्र पक्ष और विपक्ष का होना असंभव है। इसलिए जिस प्रकार प्रतिवादी के विचारानुसार वादी के पक्ष में प्रतिज्ञा आदि की असिद्धि है, उसी प्रकार प्रतिवादी के विपक्ष में भी प्रतिज्ञा आदि की असिद्धि है। क्योंकि प्रतिषेध्य का साधर्म्य प्रतिज्ञादियुक्तता का सद्भाव प्रतिवादी के प्रतिषेध में भी समान रूप से पाया जाता है। यदि प्रतिवादी स्वकीय इष्ट की असिद्धि होने को नहीं मानता है तो हम कहेंगे कि घट के साथ साधर्म्य को प्राप्त कृतकत्व आदि हेतुओं से शब्द में अनित्यपना है। परन्तु सत्त्व के साथ साधर्म्य होने से सम्पूर्ण पदार्थों में प्राप्त अनित्यता नहीं है। इसलिए यह अनित्यसमा जाति दूषणाभास है॥४३३-४३४ / /