Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 319
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 306 न ह्यर्थापत्त्यानैकांतिक्या प्रतिपक्षः सिद्ध्यति येन प्रयत्नानंतरीयकत्वात् शब्दस्यानित्यत्वे साधितेपि अस्पर्शवत्त्वान्यथानुपपत्त्या तस्य नित्यत्वं सिद्ध्येत्। सुखादिनानैकांतिकी चेयमर्थापत्तिरतो न प्रतिपक्षस्य सिद्धिस्तदसिद्धौ च नार्थापत्तिरताएव उपपद्यते, स चायुक्तार्थापत्तितः प्रतिपक्षसिद्धरापत्तिसम इति वचनात्॥ का पुनरविशेषसमा जातिरित्याहक्वचिदेकस्य धर्मस्य घटनादुररीकृते / अविशेषोत्र सद्भावघटनात्सर्ववस्तुनः॥४०४॥ अविशेषः प्रसंग: स्यादविशेषसमा स्फुटं। जातिरेवंविधं न्यायप्राप्तदोषासमीक्षणात् // 405 // एको धर्मः प्रयत्नानंतरीयकत्वं तस्य क्वचिच्छब्दघटयोर्घटनादविशेषे समानत्वे सत्यनित्यत्वे वादिनोररीकृते पुन: सद्भावः सर्वस्य सत्त्वधर्मस्य वस्तुषु घटनादविशेषस्यानित्यत्वप्रसंजनमविशेषसमा जातिः स्फुटं, ____ अनैकान्तिक अर्थापत्याभास से प्रतिपक्ष की सिद्धि नहीं हो सकती। क्योंकि वादी के द्वारा .. प्रयत्नान्तरीयकत्व हेतु से शब्द का अनित्यपना सिद्ध हो जाने पर पुनः प्रतिवादी द्वारा अस्पर्शत्व हेतु रूप अन्यथानुपपत्ति से शब्द का नित्यत्व सिद्ध नहीं हो सकता अर्थात् अस्पर्शत्व का नित्य के साथ अविनाभाव नहीं है। क्योंकि यह अर्थापत्ति सुख आदि के द्वारा अनैकान्तिक है अर्थात् सुखादि स्पर्श रहित है तथापि नित्य नहीं है। अत: जो स्पर्श गुण रहित है, वह नित्य है। यह अर्थापत्ति अनैकान्तिक है। इसलिए अर्थापत्ति से प्रतिवादी के स्व प्रतिपक्ष की सिद्धि नहीं होती। और उस प्रतिपक्ष की सिद्धि नहीं होने पर अर्थापत्तिसमा जाति नहीं बन सकती। “अर्थापत्ति के द्वारा प्रतिपक्ष की सिद्धि हो जाने से अर्थापत्तिसमा जाति मानी गई है।" यह न्याय सूत्र का कथन है। इसलिए अर्थापत्तिसमा जाति उत्थापन करना प्रतिवादी का अनुचित कार्य है। __ अविशेषसमा जाति किसको कहते हैं? उसका लक्षण क्या है? ऐसी जिज्ञासा होने पर जैनाचार्य कहते हैं - “कहीं भी शब्द और घट में एक धर्म की घटना हो जाने से दोनों को विशेषता रहित स्वीकार करने पर पुनः प्रतिवादी के द्वारा सम्पूर्ण वस्तुओं को समान सद्भाव की घटना से अन्तर रहित प्रसंग देना व्यक्त रूप से अविशेषसमा जाति कही जाती है।" परन्तु ऐसा कहना असदुत्तर जाति है। क्योंकि वादी के द्वारा सिद्ध किये गए निर्दोष पक्ष में प्रतिवादी द्वारा झूठे दोष दिखाना न्यायप्राप्त दोषों को दिखलाना नहीं है अर्थात् जो प्रतिवादी ने दोष दिखलाया है, वह न्यायमार्ग का अनुसरण करने वाला नहीं है॥४०४-४०५ / / “यहाँ एक धर्म प्रयत्नान्तरीयकत्व है"- कहीं पक्ष किये गये शब्द और घट के दृष्टान्त से अविशेष की समानता होने पर वादी के द्वारा शब्द और घट के अनित्यपना स्वीकार करने पर पुनः प्रतिवादी द्वारा सद्भाव की उत्पत्ति होने से (सम्पूर्ण वस्तुओं में सत्त्व धर्म के घटित हो जाने से) सर्व सत्त्व धर्म के सद्भाव को कहकर अनित्यपन का प्रसंग दिया जाना अविशेषसमा जाति है।

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