________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 312 प्रयत्नानंतरीयकत्वात् कारणादन्यदुत्पत्तिधर्मकत्वादिकारणांतरमनित्यत्वस्य साध्यधर्म्यस्य, ततोपि सिद्धिर्न युक्तः प्रतिषेधोयं तत्र कारणानियमवचनात्। नाभिज्ञापकमंतरेण ज्ञाप्यं न भवतीति नियमोस्ति, साध्याभावे साधनस्यानियमव्यवस्थितेः इति॥ . तस्मान्न विद्यमानस्यानुपलब्धेः प्रसाधने। निषेध्यानुपलब्धेश्चाभावस्य साधने कृते // 419 // अभावस्य विपर्यासादुपपत्तिः प्रकीर्तिता / प्रस्तुतार्थविघातायानुपलब्धिसमानधैः // 420 // भावार्थ - साध्य व्यापक होता है और हेतु व्याप्य होता है। हेतु में अविनाभाव सम्बन्ध रहता है- जैसे आत्मा के बिना जीव में श्वासोच्छ्वास चलना नहीं होता, परन्तु साध्य का कारण के साथ अविनाभाव नहीं है। कार्य हो सकता है कारण नहीं भी हो। जैसे आत्मा रूप कार्य में श्वासोच्छ्वास नहीं भी रहता है जैसे धूम के बिना अग्नि रह सकती है। ऐसा कोई नियम नहीं है कि धूम के होने पर ही अग्नि होती है। बिना धूम भी अग्नि रहती है। आचार्य ऐसी अवधारणा नहीं करते हैं कि “शब्द अनित्य है, . . प्रयत्नजन्य होने से", किन्तु संशय को प्राप्त अनित्यत्व आदि की सिद्धि के लिए अनुमान वाक्य रचते हैं। अन्यथा प्रतिवादी के द्वारा कथित पक्ष की असाधकता का साधन भी नहीं बन सकता। क्योंकि असाधकता को सिद्ध करने वाला साधन ही है। अनित्यपन साध्यधर्म का हेतु प्रयत्नजन्यत्व, इस ज्ञापक कारण के भिन्न उत्पत्तिधर्मकत्व, कृतकत्व आदि दूसरे कारण भी विद्यमान हैं। उन कारणान्तरों से भी अनित्यत्व साध्य धर्म की सिद्धि हो सकती है। इसलिए प्रतिवादी के द्वारा उठाया गया यह प्रतिषेध युक्त नहीं है। क्योंकि इसमें कारणों के नियम का वचन नहीं दिया गया है। अर्थात् कारण के होने पर कार्य होगा ही ऐसा नियम नहीं है। अभिज्ञापक (ज्ञप्ति को कराने वाले हेतु) के बिना ज्ञाप्य (जानने योग्य साध्य) नहीं हो सकता, ऐसा कोई नियम नहीं है। साध्य के अभाव में साधन के नहीं रहने का नियम व्यवस्थित है। अर्थात् साध्य के अभाव में साधन नहीं रह सकता। यह नियम है। यहाँ तक उपलब्धिसमा जाति का विचार किया गया है। (न्याय सिद्धान्त के अनुसार लौकिक, वैदिक या अभाषात्मक, घनगर्जन आदिक सभी शब्द अनित्य माने गये हैं परन्तु मीमांसक शब्दों को नित्य मानते हैं। मीमांसक का कथन है कि उच्चारण के पूर्व काल में भी शब्द अक्षुण्ण रूप से विद्यमान हैं। अभिव्यंजक कारणों के अभाव में उनका श्रावण प्रत्यक्ष नहीं होता है। इस मत का नैयायिक खण्डन करते हैं) विद्यमान शब्द की अनुपलब्धि नहीं है अर्थात् - उच्चारण के पूर्व काल में शब्दों का अस्तित्व होने पर भी अनुपलब्धि है। इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है, ऐसा नहीं कह सकते। क्योंकि अनुपलब्धि को सिद्ध करने में निषेध करने योग्य शब्द की अनुपलब्धि से पूर्वकालीन शब्द के अभाव का साधन करने पर (अभाव को सिद्ध कर चुकने पर अथवा उस आवरण की अनुपलब्धि के अनुपलम्भ से अभाव को साधने पर) उस अभाव के विपर्यय (विपरीतता) से प्रस्तावित अर्थ का विघात करने के लिए उपपत्ति उठाना निर्दोष विद्वानों के द्वारा अनुपलब्धिसमा जाति कही गई है।४१९-४२० //