Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 327
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 314 यथा न विद्यमानस्य शब्दस्य प्रागुदीरणात् / अश्रुतिः स्यात्तदावृत्त्या वा दृष्टेरिति भाषिते / 421 / ' कश्चिदावरणादीनामदृष्टेरप्यदृष्टितः / सैव मा भूत्तत: शब्दे सत्ये वाऽश्रवणात्तदा // 422 // वत्या स्वभावसंसिद्धेरभावादिति जल्पति / प्रस्ततार्थविधावेव नैव संवर्णितः स्वयं // 423 // तदीदृशं प्रत्यवस्थानमसंगतमित्यावेदयतितदसंबंधमेवास्यानुपलब्धेः स्वयं सदा-। नुपलब्धिस्वभावेनोपलब्धिविषयत्वतः॥४२४॥ नैवोपलब्ध्यभावेनाभावो यस्मात्प्रसिद्ध्यति। विपरीतोपपत्तिश्च नास्पदं प्रतिपद्यते // 425 // शब्दस्यावरणादीनि प्रागुच्चारणतो न वै। सर्वत्रोपलभे हंत इत्याबालमनाकुलम् // 426 // ततश्चावरणादीनामदृष्टेरप्यदृष्टितः। सिद्ध्यत्यभाव इत्येष नोपालंभः प्रमान्वितः॥४२७॥ जिस प्रकार उदीरणा (उच्चारण) के पूर्व काल में विद्यमान नहीं होने वाले (अविद्यमान) शब्द की अश्रुति है, वह श्रुतिगोचर नहीं है। क्योंकि उस दृश्य शब्द की अनुपलब्धि के कारण आवरण, असन्निकर्ष. . आदि भी दृष्टिगोचर नहीं हो रहे हैं। इस प्रकार वादी के द्वारा कहने पर कोई प्रतिवादी कहता है कि आवरण आदिकों के अनपलम्भ का भी अनपलंभ है। आवरणों का भी अदर्शन का अदर्शन है अर्थात जब शब्द का अस्तित्व ही नहीं है तो आवरण किसका हो सकता है? इसलिए वह आवरणों का अनुपलंभ भी नहीं मानना चाहिए। ऐसी दशा में आवरणों का सद्भाव हो जाने से पूर्व काल में शब्द के होने पर उन आवारकों से आवृत हो जाने के कारण उस समय पूर्व काल में शब्द का सुनना नहीं हो सका है। वस्तुतः शब्द उस समय विद्यमान था। उन शब्दों के आवरण आदि के अभाव की सिद्धि होने का अभाव है। अत: वादी का हेतु प्रस्ताव प्राप्त अनित्य अर्थ की विधि करने में ही स्वयं वर्णनायुक्त नहीं है अर्थात् वादी ने जो यह प्रतिज्ञा की थी कि शब्दोच्चारण के पूर्व विद्यमान शब्द की अनुपलब्धि नहीं होती है। इसलिए शब्द के नित्यपन में कोई बाधा नहीं है। इस प्रकार जाति को कहने वाला प्रतिवादी जल्प कर रहा है, कह रहा है।४२१-४२२-४२३ / / इस प्रकार प्रतिवादी का प्रत्यवस्थान उठाना संगतिशून्य है। इस कथन को जैनाचार्य निवेदन करते imic वह प्रतिवादी का कहना पूर्वापर सम्बन्ध से रहित है क्योंकि आवरण आदिकों की स्वयं अनुपलब्धि mic __ अनुपलब्धि स्वरूप स्वभाव के द्वारा सदा अनुपलब्धि स्वयं उपलब्धि का विषय हो रही है। इसलिए उपलब्धि स्वरूप आवरण आदिकों की अनुपलब्धि के अभाव से आवरणानुपलब्धि का अभाव सिद्ध नहीं है। और उसकी सिद्धि नहीं होने पर विपरीत आवरण सद्भाव की सिद्धि हो जाना कैसे भी प्रतिष्ठा स्थान को प्राप्त नहीं कर सकता // 424-425 // उच्चारण के पूर्व शब्द को या उसके आवरण आदिकों को मैं नियम से सर्वत्र नहीं देख रहा हूँ, इस प्रकार का आकुलता रहित अनुभव बाल गोपाल सभी को हो रहा है। इसलिए आवरण आदिकों की अनुपलब्धि को भी अनुपलब्धि से आवरण अनुपलब्धि का अभाव सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार यह प्रतिवादी के द्वारा उपालंभ देना प्रमा बुद्धि से अन्वित कार्य नहीं है॥४२६-४२७॥

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