________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *313 कश्चिदाह, न प्रागुच्चारणाद्विद्यमानस्य शब्दस्यानुपलब्धिः तदावरणश्चानुपलब्धेरुत्पत्तेः प्राग्घटादेरिव / यस्य तु दर्शनात् प्राग्विद्यमानस्यानुपलब्धिस्तस्य नावरणाद्यनुपलब्धिः यथा भूम्यावृत्तस्योदकादेर्नावरणाद्यनुपलब्धिश्च श्रवणात् प्राक् शब्दस्य। तस्मान्न विद्यमानस्यानुपलब्धिरित्यविद्यमानः शब्दश्रवणात्पूर्वमनुपलब्धिरिति निषेधस्य शब्दस्यानुपलब्धिर्या तस्याश्चानुपलब्धेरभावस्य साधने कृते सति विपर्यासादभावेऽस्योपपत्तिरनुपलब्धिसमा जातिः प्रकीर्तितानधैः, प्रस्तुतार्थविघाताय तस्याः प्रयोगात्। तदुक्तं / "तदनुपलब्धेरनुपलंभादभावसिद्धौ विपरीतोपपत्तेरनुपलब्धिसम” इति॥ कथमिति श्लोकैरुपदर्शयति कोई कहता है कि विद्यमान शब्द की उच्चारण के पूर्व अनुपलब्धि नहीं है। क्योंकि उस शब्द के आवरण (भूमि, भीत, आदि के समान), असन्निकर्ष (इन्द्रिय और अर्थ का सन्निकर्ष नहीं होना), इन्द्रियघात (इन्द्रियों का विकल हो जाना), सूक्ष्मता (परमाणु के समान इन्द्रियगोचर नहीं होना), मनोऽनवस्थान (मन का स्थिर नहीं होना), अतिदूरत्व (अत्यधिक दूर देश में स्थित रहना), अभिभव (शब्द का तिरोभूत होना) समानाभिहार (शब्द का समान गुण वाले में मिश्रण हो जाना) आदि के द्वारा अनुपलब्धि होने से उत्पत्ति के पूर्व घटादि के समान शब्द की अनुपलब्धि नहीं है। दर्शन के पूर्व विद्यमान जिस पदार्थ की अनुपलब्धि है, उसके आवरण, असन्निकर्ष, व्यवधान आदि अनुपलब्धि नहीं है। जैसे भूमि से आच्छादित जल आदि की अनुपलब्धि नहीं है। उसी प्रकार कर्णगोचर के पूर्व शब्द आदि की भी अनुपलब्धि नहीं है अर्थात् उपलब्धि है। अतः विद्यमान शब्द की अनुपलब्धि नहीं है अपितु सुनने के पूर्वकाल में शब्द विद्यमान ही नहीं है अर्थात् श्रवणगोचर होने के पूर्व शब्द की उपलब्धि ही नहीं है। - इसलिए, निषेध करने योग्य जो शब्द की अनुपलब्धि है, उसकी भी अनुपलब्धि हो जाने से अभाव का साधन करने पर विपरीतता से उस अनुपलब्धि के अभाव की उपपत्ति करना निष्पाप विद्वानों के द्वारा प्रतिवादी की अनुपलब्धिसमा जाति कही गयी है। वादी के प्रस्तावप्राप्त अर्थ का विघात करने के लिए प्रतिवादी ने उस जाति का प्रयोग किया है। सो ही न्याय ग्रन्थ में लिखा है कि आवरण आदि बाधक कारणों की अनुपलब्धि के अनुपलंभ से अनुपलब्धि का अभाव सिद्ध हो जाने पर उसके विपरीत आवरण आदिकों का अस्तित्व जान लिया जाता है अर्थात् इसलिए वादी ने जो कहा था कि उच्चारण के पूर्व शब्द विद्यमान नहीं है इसलिए उसकी उपलब्धि नहीं होती है। यह वादी का कथन सिद्ध नहीं हो सकता। जिस प्रकार दृष्टिगोचर नहीं होने वाले आवरणों की अनुपलब्धि से उनका अभाव मान लिया जाता है, उसी प्रकार अनुपलभ्यमान आवरणानुपलब्धि का अभाव भी जान लिया जाता है। इसलिए शब्द को नित्य अभिप्रेत करने वाले प्रतिवादी का यह अनुपलब्धिसम नाम का प्रतिषेध है। उस अनुपलब्धिसम प्रतिषेध का उदाहरण किस प्रकार है? ऐसी जिज्ञासा होने पर जैनाचार्य कहते