Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

Previous | Next

Page 323
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 310 इत्येष हि न युक्तोऽत्र प्रतिषेधः कथंचन / कारणस्याभ्यनुज्ञादि यादृशं ब्रुवतां स्वयं // 413 / / शब्दानित्यत्वसिद्धिश्शोपपत्तेरविगानतः / व्याघातस्तु द्वयोस्तुल्यः सपक्षप्रतिपक्षयोः॥४१४॥ साधनादिति नैवासौ तयोरेकस्य साधकः। एवं ह्येष न युक्तोत्र प्रतिषेधः कथं मतिः॥४१५॥ कारणस्याभ्यनुज्ञानात् उभयकारणोपपत्तेरिति ब्रुवता स्वयमेवानित्यत्वे कारणं प्रयत्नानंतरीयकत्वं तावदभ्यनुज्ञातमनेनाभ्यनुज्ञानान्नानुपपन्नस्तत्प्रतिषेधः। शब्दानित्यत्वसिद्ध्या उपपत्तेरविवादात् / यदि पुनर्नित्यत्वकारणोपपत्तौ सत्यामनित्यत्वकारणोपपत्तेाघातादनित्यत्वादसिद्धेर्युक्तः प्रतिषेध इति मतिस्तदास्त्यनित्यत्वकारणोपपत्तौ सत्यां नित्यत्वकारणोपपत्तिरपि व्याघातान्न नित्यत्वसिद्धिरपीति नित्यत्वानित्यत्वयोरेकतरस्यापि न साधकस्तुल्यत्वादुभयोर्व्याघातस्य / / “उपपत्ति कारणाभ्यनुज्ञानादप्रतिषेधः' - इस सूत्र के अनुसार सिद्धान्ती उसका उत्तर कहते हैं कि प्रतिवादी के द्वारा यह प्रतिषेध करना कैसे भी युक्तिपूर्ण नहीं है। क्योंकि जैसे कारणों की अभ्यनुज्ञादि कहने वाले के द्वारा स्वयं (दोनों कारणों की उत्पत्ति कहने वाले के) चारों ओर से निर्दोष शब्द के अनित्यपने को स्वीकार कर लिया गया है। स्वपक्ष और प्रतिपक्ष दोनों के तुल्य होने पर व्याघात दोष आता है अर्थात् स्वकीय पक्ष नित्यत्व प्रतिवादी के अनित्य पक्ष से बाधित है। इसलिए वह प्रतिवादी उन दोनों में से एक पक्ष का भी साधने वाला नहीं है। इस प्रकार प्रतिवादी के द्वारा किया गया प्रतिषेध कैसे भी समुचित नहीं / है।॥४१३-४१४-४१५॥ कारण के अभ्यनुज्ञान की (नित्य और अनित्य) दोनों कारणों से उत्पत्ति होती है। इस प्रकार कहने वाले प्रतिवादी ने स्वयमेव शब्द के अनित्यत्व में प्रयत्नानन्तरीयकत्व (पुरुष का प्रयोग रूंप) कारण को तो स्वीकार कर ही लिया है। इसलिए पुनः (अनित्यपना स्वीकार करने के बाद) शब्द के अनित्यत्व का निषेध करना शक्य नहीं हो सकता। क्योंकि शब्द के अनित्यत्व की उत्पत्ति में प्रतिवादी का विवाद नहीं है। इसलिए शब्द के अनित्यता का निषेध नहीं किया जा सकता। यदि पुनः प्रतिवादी कहे कि शब्द के नित्यत्व का कारण स्पर्शरहितत्व की पूर्व में उत्पत्ति हो जाने पर अनित्यत्व के कारण (पुरुष प्रयत्न) का व्याघात हो जाता है। इसलिए शब्द अनित्य है यह असिद्ध होने से शब्द को अनित्य सिद्ध करना युक्तिसंगत नहीं है। अर्थात् अनित्य का निषेध करना ही ठीक है। जिस प्रकार शब्द को नित्य सिद्ध करने पर पुरुष प्रयोग हेतु से व्याघात दोष आता है, उसी प्रकार शब्द को अनित्य सिद्ध करने पर अस्पर्शत्व हेतु से व्याघात होता है। इसलिए शब्द के अनित्यत्व का निषेध करना युक्तिसंगत है - यह मेरा विचार है। इसके प्रत्युत्तर में सिद्धान्तवादी कहते हैं कि पूर्व में वादी के द्वारा शब्द के अनित्यत्व को सिद्ध कर देने पर पुन: व्याघात दोषयुक्त होने से प्रतिवादी के द्वारा शब्द के नित्यत्व की सिद्धि नहीं हो सकती। क्योंकि प्रथम बोलने का अधिकार वादी का है। इस प्रकार पक्ष और विपक्ष दोनों में एक को सिद्ध करने वाला प्रतिवादी वस्त का साधक नहीं है (अर्थात विपक्ष का निराकरण करके स्वपक्ष की स्थापना करने वाला ही साधक होता है)। क्योंकि दोनों ही पक्षों में व्याघात दोष तुल्य रूप से स्थित है। इसलिए प्रतिवादी के द्वारा प्रतिषेध करना युक्त नहीं है। अतः उत्पत्तिसमा जाति सिद्ध नहीं है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358