________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 307 एवंविधस्य न्यायप्राप्तस्य दोषस्यासमीक्षणात्। “एकधर्मोपपत्तेरविशेषे सर्वाविशेषप्रसंगात् सद्भावोपपत्तेरविशेषसम' इत्येवंविधो हि प्रतिषेधो न न्यायप्राप्तः।। कुत इत्याहप्रयत्नानंतरीयत्वधर्मस्यैकस्य संभवात् / अविशेषे ह्यनित्यत्वे सिद्धेपि घटशब्दयोः // 406 / / न सर्वस्याविशेषः स्यात्सत्त्वधर्मोपपत्तितः। धर्मांतरस्य सद्भावनिमित्तस्य निरीक्षणात् // 407 / / प्रयत्नानंतरीयत्वे निमित्तस्य च दर्शनात् / न समोयमुपन्यासः प्रतिभातीति मुच्यताम् // 408 // सर्वार्थेष्वविशेषस्य प्रसंगात् प्रत्यवस्थितिः। विषमोयमुपन्यासः सर्वार्थेषूपपद्यतां // 409 // न हि यथा प्रयत्नानंतरीयकत्वं साधनधर्मः साध्यमनित्यत्वं साधयति शब्द तथा सर्ववस्तुनिःसत्त्वं यतः सर्वस्याविशेष: स्यात् सत्त्वधर्मोपपत्तितयैव धर्मांतरस्यापि नित्यत्वस्याकाशादौ सद्भावनिमित्तस्य दर्शनात् ___ सिद्धान्ती कहते हैं कि इस प्रकार कहना न्यायप्राप्त दोषों का असमीक्षण है अर्थात् इस प्रकार के न्यायप्राप्त दोषों का समीक्षण नहीं होने से यह प्रतिवादी का जाति रूप उत्तर स्पष्ट रूप से असत् उत्तर है। "न्याय सूत्र में अविशेषसमा यह लक्षण है कि विवक्षित पक्ष दृष्टान्त व्यक्तियों में एक धर्म की उत्पत्ति हो जाने से अविशेष हो जाने पर पुनः सद्भाव की उत्पत्ति होने से सम्पूर्ण वस्तुओं के अविशेष का प्रसंग देने से प्रतिवादी द्वारा अविशेषसमा प्रतिषेध उठाया जाता है। परन्तु इस प्रकार का प्रतिषेध न्यायप्राप्त नहीं है।" / यह न्यायप्राप्त क्यों नहीं है? ऐसा कहने पर जैनाचार्य कहते हैं - एक प्रयत्नानन्तरीयकत्व धर्म के संभव हो जाने से घट और शब्द के विशेषता रहित अनित्यपना सिद्ध हो जाने पर भी सर्व पदार्थों के सत्त्व धर्म की विशेषता रहित उत्पत्ति होती है। क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थों के निमित्तभूत धर्मान्तर का दर्शन पाया जाता है। धर्मान्तर दृष्टिगोचर होता है। इसलिए जातिवाद का सम्पूर्ण पदार्थों में सत्त्व होने से विशेषता रहित का प्रसंग आता है। अत: यह उपन्यास सम (समान) है - यह प्रतिभासित नहीं होता है। अतः प्रत्यवस्थान (प्रसंग) उठाना छोड़ देना चाहिए। इस प्रकार का विषम उपन्यास (उदाहरण) तो सभी पदार्थों में प्रसंगवश प्राप्त हो सकता है। अर्थात् सामान्य मनुष्यपन के सद्भाव होने से सभी विद्यार्थी, विद्वान् या सभी व्यापारी धनाढ्य हो जायेंगे। तथा गोत्व सामान्य का सद्भाव होने से सभी गायें दूध देने वाली हो जाएंगी। इसलिए प्रतिवादी के द्वारा अविशेषत्व का प्रसंग उठाना दूषणाभास है।।४०६-४०९॥ __जिस प्रकार हेतु धर्म प्रयत्नानन्तरीयकत्व शब्द में अनित्य साध्य को सिद्ध करता है, उसी प्रकार सर्व पदार्थों में रहने वाला सत्त्व धर्म सर्व पदार्थों में अनित्यत्व को सिद्ध नहीं करता है। क्योंकि केवल सत्त्व धर्म की उत्पत्ति कर देने से ही सर्व वस्तुओं का विशेष रहितपना सिद्ध हो सकता है। क्योंकि यदि सद्भाव का व्यापक रूप से निमित्त अनित्यपना होता, तब तो प्रतिवादी प्रत्यवस्थान (प्रश्न) चल सकता था। परन्तु, आकाश आत्मा आदि में सद्भाव का निमित्त धर्म (सत्त्व) नित्य पदार्थों में दृष्टिगोचर हो रहा है, और