Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 307
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 294 साधकः। किं च, यदि तावदेवं ब्रूते यथायं त्वदीयो दृष्टांतो लोष्ठादिस्तथा मदीयोप्याकाशादिरिति तदा दृष्टांतस्य लोष्ठादेरभ्युपगमान्न दृष्टांतत्वं व्याघातत्वात्। अथैवं ब्रूते यथायं मदीयो दृष्टांतस्तथा त्वदीय इति तथापि न दृष्टांतः कश्चित् व्याघातादेव दृष्टांतप्रतिदृष्टांतत्वैः परस्परं व्याघातः समानबलत्वात्। तयोरदृष्टांतत्वे तु। प्रतिदृष्टान्तस्य ह्यदृष्टान्तत्वे दृष्टांतस्यादृष्टांतत्वव्याघातः प्रतिदृष्टांताभावे तस्य दृष्टांतत्वोपपत्तेः दृष्टांतस्य चादृष्टांतत्वे प्रतिदृष्टांतस्यादृष्टांतत्वव्याघातः दृष्टांताभावे तस्य प्रतिदृष्टांततोपपत्तेः / न चोभयोर्दृष्टांतत्वं व्याघातादिति न प्रतिदृष्टांतेन प्रत्यवस्थानं युक्तम् // हेतुभाव ही तो साध्य का साधकपन है। वह अन्य कारणों की अपेक्षा रखे बिना ही अहेतु क्यों नहीं होगा? अर्थात् वादी का दृष्टांत या हेतु की अपेक्षा नहीं रखता हुआ प्रकृत साध्य का साधक हो जाता है। यदि वह प्रतिवादी के दृष्टांत से प्रतिषिद्ध नहीं हुआ है, तो अप्रतिषिद्ध हो रहा यह आत्मा के सक्रियत्व का साधक होता है। ऐसी दशा में प्रतिवादी का उत्तर समीचीन नहीं है। प्रतिदृष्टांत सम के दूषणाभासपन में दूसरी उपपत्ति यह भी है कि यह जातिवादी यदि पहले ही इस प्रकार स्पष्ट कहे कि जिस प्रकार यह तेरा पत्थर आदि दृष्टांत है, उसी प्रकार मेरा भी आकाश, चुम्बक पाषाण आदि दृष्टांत है। इसके प्रत्युत्तर में सिद्धांती कहते हैं कि तब तो प्रतिवादी ने लोष्ट, गोला आदि दृष्टांतों को समीचीन दृष्टांतपने से स्वीकार कर लिया है। ऐसी दशा में आकाश आदि को प्रतिपक्ष का साधक दृष्टांतपना नहीं बन सकता है, क्योंकि इसमें व्याघात दोष आता है। अथवा, जातिवादी यदि ऐसा कहता है कि जैसा तेरा यह लोष्ट आदि दृष्टान्त है, वैसा ही मेरा आकाशादि दृष्टान्त है। इसके प्रत्युत्तर में सिद्धान्तवादी कहता है कि तब तो प्रतिवादी ने लोष्ट आदि को दृष्टान्त स्वीकार कर लिया है। अत: आकाश आदि को प्रतिपक्ष का साधक दृष्टान्तपना नहीं बन सकता। क्योंकि इसमें व्याघात दोष आता है अर्थात् जैसे पर्वत पर अग्नि को सिद्ध करने के लिए दिया गया सरोवर का दृष्टान्त व्याघात दोष से युक्त है। ____ “यदि वादी कहे कि जैसा मेरा दृष्टान्त है वैसा ही तेरा दृष्टान्त है"- इसमें भी व्याघात दोष आता है। अतः इन दोनों में कोई दृष्टान्त नहीं हो सकता। क्योंकि दोनों के दृष्टान्त में समान बल होने से परस्पर व्याघात है। अत: दोनों के दृष्टान्तपना नहीं है। क्योंकि प्रतिदृष्टान्त (आकाश) को अदृष्टान्त स्वीकार करने पर उसी समय लोष्ट (पत्थर) के दृष्टान्तपने का व्याघात (निराकरण) हो जाता है। क्योंकि प्रतिदृष्टान्त के अभाव में दृष्टान्त की सरलतया सिद्धि हो जाती है अर्थात् जैसे घट रहितपने का निषेध करने पर घट सहितपना सुलभता से सिद्ध हो जाता है। तथा दृष्टान्त (लोष्ट) को अदृष्टान्त मानने पर प्रतिदृष्टान्त (आकाश) के अदृष्टान्त का व्याघात हो जाता है। अर्थात् प्रतिदृष्टान्त को अदृष्टान्त नहीं कह सकते। क्योंकि दृष्टान्त के अभाव में उस आकाश को प्रतिदृष्टान्तपना युक्तिसिद्ध हो जाता है। आकाश और लोष्ट दोनों के दृष्टान्तपना सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि परस्पर व्याघात दोष से युक्त हैं। इसलिए प्रतिवादी को प्रतिदृष्टान्त (आकाश) के द्वारा प्रत्यवस्थान उठाना (प्रतिदृष्टान्तसमा जाति कहना) समुचित नहीं है।

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