Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 313
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 300 करोति सद्भूतं दूषणमप्यसत्, प्रयत्नानांतरीयकेपि शब्दे सामान्येन साधर्म्यमैंद्रियकत्वं नित्ये नास्ति घटेन वानित्येनेति संशयः। शब्दे नित्यानित्यत्वधर्माधर्मयोरित्येषा संशयसमा जातिः। सामान्यघटयोरेंद्रियकत्वे सामान्ये स्थिते नित्यानित्यसाधान पुनरेकसाधात् / सामान्यदृष्टांतयोरैंद्रियकत्वे समाने नित्यानित्यसाधर्म्यात्संशयसम इति वचनात्। अत्र संशयो न युक्तो विशेषेण शब्दानित्यत्वसिद्धेः। तथाहिपुरुषे शिर:संयमनादिना विशेषेण निर्णीतेसति न पुरुषस्थाणुसाधादूर्द्धत्वात्संशयस्तथा प्रयत्नानंतरीयकत्वेन विशेषेणानित्ये शब्दे निश्चिते सति न घटसामान्यसाधादेन्द्रियकत्वात्संशयः अत्यन्तसंशयः / वादी के द्वारा साध्य सिद्धि के निमित्त हेतु का प्रयोग कर देने पर दूसरा प्रतिवादी वास्तविक दूषण को नहीं देखता हुआ स्वयं संशय के द्वारा प्रत्यवस्थान (उलाहना) करता है कि पुरुष प्रयत्न के उत्तर काल में उत्पन्न हुए शब्द में नित्य सामान्य के साथ इन्द्रियजन्य ज्ञान ग्राह्यत्व साधर्म्य है और अनित्य घट के साथ पुरुष के प्रयत्न का साधर्म्य है। इसलिए शब्द में नित्यत्व और अनित्यत्व धर्मों का संशय हो जाता है। अर्थात्-. घट के समान शब्द अनित्य है कि इन्द्रियग्राह्यत्व होने से नित्य है। इस प्रकार शब्द में नित्य और अनित्य इन धर्मों की अपेक्षा यह संशयसमा जाति है। अतः संशयसमा जाति के सामान्य और घट के ऐन्द्रियकत्व साधारणत्व (सामान्य) की व्यवस्थिति हो जाने पर नित्य और अनित्य के सधर्मत्व से प्रतिवादी के द्वारा संशय उठाया जाता है। फिर भी एक ही सामान्य के साधर्म्य से संशयसमा जाति नहीं उठायी जा सकती। गौतमऋषिसूत्र में इस प्रकार कहा है कि सामान्य (शब्दत्व) और दृष्टान्त दोनों के ऐन्द्रियकत्व समान होने पर नित्य और अनित्यों के साधर्म्य से संशयसम प्रतिषेध उठाया जाता है। अत: दोनों जातियाँ भिन्नभिन्न हैं। यहाँ प्रतिवादी द्वारा संशय उठाना युक्त नहीं है। क्योंकि विशेष रूप से शब्द के अनित्यत्व की सिद्धि कर दी गयी है। तथाहि-सिर की चोटी बाँधना, हाथ पाँव का कम्पन आदि विशेष कारणों के द्वारा मनुष्य का निश्चय (निर्णय) हो जाने पर पुनः स्थाणु और पुरुष के ऊर्ध्वता मात्र सामान्य से संशय नहीं होता है। वैसे ही प्रयत्न उत्तर जन्य के द्वारा विशेष रूप से शब्द के अनित्यत्व का निश्चय हो जाने पर घट और सामान्य के साधर्म्य रूप केवल ऐन्द्रियकत्व से संशय नहीं हो सकता। यदि साधर्म्य की अपेक्षा संशय मानेंगे तो संशय का विनाश भी नहीं होगा। अनन्त काल तक संशय बना रहेगा। क्योंकि पुरुष, स्थाणु आदि में रहने वाले संशय का कारणभूत ऊर्ध्वता आदि साधर्म्य का कभी भी विनाश न होने के कारण निर्णय कहाँ स्थान पा सकता है? क्योंकि केवल साधर्म्य मात्र से संशय स्वीकार करने पर क्वचित् वैधर्म्य दृष्टिगोचर होने से निर्णय होना युक्त नहीं होगा। पुन: केवल वैधर्म्य, अथवा साधर्म्य तथा साधर्म्य वैधर्म्य दोनों के द्वारा यदि संशय होना माना जायेगा तो अत्यन्त (अनन्तकाल तक) संशय होता ही रहेगा। परन्तु यह अत्यन्त संशय प्रशंसनीय नहीं है। क्योंकि सामान्य के देखने से संशय होता है, और विशेष के दर्शन से संशय की निवृत्ति सिद्ध हो जाती है। इसलिए संशय समा जाति का उत्थापन करना प्रतिवादी का समुचित कर्त्तव्य नहीं है।

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