Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 304
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 291 वायुना संयोग: कालत्रयेप्यसंभवादाकाशे क्रियायाः। कथं क्रियाहेतुर्वायुना संयोग इति न शंकनीय, वायुना संयोगेन वनस्पतौ क्रियाकारणेन प्रसिद्धेन समानधर्मत्वादाकाशे वायुसंयोगस्य, यत्त्वसौ तथाभूतः क्रियां न करोति तन्नाकारणत्वादपि तु प्रतिबंधनान्महापरिमाणेन / यथा मंदवायुनानंतानां लोष्ठादीनामिति / यदि च क्रिया दष्टा क्रियाकारण वायसंयोग इति मन्यसे तदा सर्वकारणं क्रियानमेयं भवतः प्राप्तं / ततश्च कस्यचित्कारणस्योपादानं न प्राप्नोति क्रियार्थिनां किमिदं करिष्यति किं वा न करिष्यतीति संदेहात्। यस्य पुन: क्रियासमर्थत्वादुपादानं इस प्रत्यवस्थाता प्रतिवादी का तात्पर्य यह है कि क्रियाहेतु गुण का आश्रय आकाश जैसे निष्क्रिय है, वैसे ही क्रियाहेतुगुण का आश्रय हो रहा आत्मा भी निष्क्रिय रहे। प्रश्न - तुम्हारे द्वारा स्वीकृत प्रतिकूल दृष्टान्त आकाश में कौनसी क्रिया का हेतुगुण है? उत्तर - वायु के साथ आकाश का संयोग हो रहा है और वह संस्कार की अपेक्षा रखता हुआ क्रियाहेतुगुण देखा गया है। जैसे कि वायु के साथ वृक्ष में हो रहा संयोग नामक गुण उस वृक्ष के कम्पन का कारण है, उसी वायुवृक्ष संयोग के समान धर्मवाला वायु आकाश संयोग है। संयोग गुण दो में रहता है। वृक्षवायु का संयोग जैसे वृक्ष में क्रिया उत्पन्न करता है उसी के समान वायु आकाश संयोग भी आकाश में क्रिया को उत्पन्न कराने की योग्यता रखता है परन्तु तीनों कालों में भी आकाश में क्रिया का होना असम्भव है। अत: वायु के साथ वृक्ष के संयोग को वृक्ष में क्रिया सम्पादन का कारण कैसे कहा जा सकता है? यह शंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि वायु के साथ वनस्पति का संयोग तो वृक्ष में क्रिया का कारण होता हुआ प्रसिद्ध है। आकाश में वायु के साथ संयोग भी उस वृक्ष वायु के संयोग का समानधर्मा है। अर्थात्-समानधर्म वाले वृक्ष वायु संयोग और आकाश वायु संयोग के द्वारा वृक्ष में जैसे क्रिया हो जाती है, उसी प्रकार आकाश में (उस) संयोग करके देश से देशान्तर हो जाना रूप क्रिया क्यों नहीं होती है? यदि कारण है तो कार्य अवश्य होना चाहिए। ... इसका समाधान प्रतिवादी की ओर से ऐसा दिया जाता है कि जो वह वायु आकाश संयोग इस प्रकार क्रिया का कारण होने पर भी वहाँ आकाश में क्रिया को नहीं कर रहा है, वह अकारणपन से क्रिया का असम्पादक है, यह नहीं समझना चाहिए, किन्तु महापरिमाण के द्वारा आकाश में क्रिया उत्पन्न होने का प्रतिबन्ध हो जाता है। जैसे कि मन्दवायु के द्वारा अनन्त पत्थर आदि में क्रिया नहीं हो पाती है। परन्तु आकाश में क्रिया का कारण यदि वायु संयोग माना जाता है, तो वहाँ क्रिया हो जाना दिख जाना चाहिए। सिद्धान्ती कहते हैं कि तब तो यहाँ सभी कारण अपनी-अपनी क्रिया के द्वारा ही अनुमान करने योग्य हो सकेंगे। यहाँ प्रसंग प्राप्त होता है और ऐसा हो जाने से अर्थक्रिया के अभिलाषी जीवों के किसी एक विशेष कारण का ही उपादान करना प्राप्त नहीं होता है। चाहे कोई भी सामान्य कारण हमारी अभीष्ट क्रिया को साध देगा। तुम्हारे मतानुसार सभी कारण अपनी क्रियाओं को करते ही हैं, तो फिर लौकिक जनों को अनेक कारणों में इस प्रकार जो संशय हो जाता है कि न जाने यह कारण हमारी अभीष्ट क्रिया को करेगा? अथवा नहीं करेगा? यह सन्देह क्यों हुआ? जिस शंकाकार के यहाँ सभी समर्थ कारण या असमर्थ कारण आवश्यक

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