________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 288 स्वसाध्यस्य ज्ञापको दृष्टो यथा संयोगी धूमादिः पावकादेः। कश्चिदप्राप्तो विश्लेषे, यथा कृत्तिकोदयः शकटोदयस्येत्यपि विज्ञायते। अथायं सर्वोपि पक्षीकृतस्तर्हि येन हेतुना प्रतिषिध्यते सोपि प्रतिषेधको न स्यादुभयथोक्तदूषणप्रसंगादित्यप्रतिषेधस्ततो दूषणाभासाविमौ प्रतिपत्तव्यौ॥ वक्तव्यं साधनस्यापि साधनं वादिनेति तु। प्रसंगवचनं जाति: प्रसंगसमतां गता // 361 // क्रियाहेतुगुणोपेतः क्रियावांल्लोष्ठ इष्यते / कुतो हेतोर्विना तेन कस्यचिन्न व्यवस्थितिः // 362 // एवं हि प्रत्यवस्थानं न युक्तं न्यायवादिनां / वादिनोर्यत्र वा साम्यं तस्य दृष्टांततास्थितिः / 363 / . अतः कोई-कोई ज्ञापक हेतु भी प्राप्त होकर अपने नियत साध्य का ज्ञापक देखा जाता है। जैसे अग्नि के साथ संयोग सम्बन्ध का धारक धूम हेतु या रूप के साथ एकार्थसमवाय का धारक रस हेतु आदि भी अग्नि, रूप आदि के ज्ञापक हैं। तथा दैशिक या कालिक विभाग हो जाने पर कोई-कोई हेतु अप्राप्त होकर भी स्वकीय साध्य का ज्ञापक जाना जाता है। जैसे कि कृत्तिका का उदय / यह हेतु मुहूर्त पीछे शकट के उदय का साधकः / हो जाता है। इस ज्ञापक हेतुओं की प्राप्ति और अप्राप्ति से स्वसाध्य के प्रति साधकता भी समझ लेनी चाहिए। क्योंकि अब तो दृष्टान्त और दार्टान्त सर्वथा विषम नहीं रहे। यदि प्रतिवादी का पक्षपात करने वाला कोई विद्वान् यह कहे कि यह सब भी पक्ष कोटि में कर लिया जाएगा। अर्थात् धूम प्राप्त होकर यदि अग्नि का प्रकाशक है, तो धूम और अग्नि दोनों में से एक का साध्यपन और दूसरे का हेतुपन कैसे युक्त हो सकता है? तथा अप्राप्त कृतिकोदय यदि रोहिणी उदय को साध देगा, तो सभी अप्राप्तों का वह साधक बन जायेगा, इस प्रकार यहाँ भी प्राप्तिसमा, अप्राप्तिसमा जातियाँ उठायी जा सकती हैं और जिस हेतु से वादी को अभिप्रेत साध्य का प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध किया जायेगा, वह प्रतिवादी का हेतु भी प्रतिषेध करने वाला नहीं हो सकेगा। क्योंकि यहाँ भी प्राप्ति और अप्राप्ति के विकल्प उठाकर दोनों प्रकार से वैसे ही दूषण उठा देने का प्रसंग आयेगा। इस कारण प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध नहीं हो सकेगा। अत: सिद्ध हुआ कि ये प्राप्तिसमा और अप्राप्तिसमा दोनों दूषणाभास हैं। ऐसा समझ लेना चाहिए। अब प्रसंगसमा जाति का लक्षण कहते हैं - वादी ने जिस प्रकार साध्य का साधन कहा है, वैसे ही साधन का भी साधन करना या दृष्टान्त की भी सिद्धि करना वादी को कहना चाहिए। इस प्रकार प्रतिवादी द्वारा जो प्रसंग का कथन किया जाता है वह प्रसंगपने को प्राप्त प्रसंगसमा जाति है॥३६१।। क्रिया के हेतुभूत गुणों का सम्बन्ध रखने वाला पत्थर क्रियावान् किस हेतु से माना जाता है? उस हेतु के बिना तो किसी भी प्रमेय की व्यवस्था नहीं हो सकती है॥३६२॥ न्याय पूर्वक कथन करने वाले पण्डितों को इस प्रकार दूषण उठाना युक्त नहीं है। ___ क्योंकि जिस पदार्थ में वादी अथवा प्रतिवादियों के विचार सम होते हैं, उसका दृष्टान्तपना प्रतिष्ठित किया जाता है और प्रसिद्ध दृष्टान्त की सामर्थ्य से वादी द्वारा प्रतिवादी के प्रति असिद्ध साध्य की ज्ञप्ति करा दी जाती है। जैसे कि रूप या रूपवान् को देखना चाहने वाले पुरुषों के दीपक, आलोक आदि का ग्रहण करना प्रतीत होता है। किन्तु स्वयं प्रकाशित प्रदीप आदि का देखना चाहने वाले पुरुषों को पुनः उसके लिए