Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 299
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 286 तत्र न लभ्यो गोगवययोधर्मविकल्पश्चोदयितुं / एवं साधनधर्मे दृष्टांतादिसामर्थ्ययुक्ते सति न लभ्यः साध्यदृष्टांतयोधर्मविकलाद्वैधात् प्रतिषेधो वक्तुमिति / साध्यातिदेशमात्राच्च दृष्टांतस्योपपत्तेः साध्यत्वासंभवात्। यत्र हि लौकिकपरीक्षकाणां बुद्धेरभेदस्तेनाविपरीतोर्थः साध्येऽतिदिश्यते प्रज्ञापनार्थं। एवं च साध्यातिदेशाद् दृष्टांते क्वचिदुपपद्यमाने साध्यत्वमनुपपन्नमिति / तथोद्योतकरोप्याह। दृष्टांतः साध्य इति वचनासम्भवात्तावता भवता न दृष्टांतलक्षणं व्यज्ञायि / दृष्टांतो हि नाम दर्शनयोर्विहितयोर्विषयः / तथा च साध्यमनुपपन्नं / अथ दर्शन विहन्यते तर्हि नासौ दृष्टांतो लक्षणाभावादिति॥ प्राप्त्या यत्प्रत्यवस्थानं जातिः प्राप्तिसमैव सा। अप्राप्त्या पुनरप्राप्तिसमा सत्साधनेरणे।३५५। यथायं साधयेद्धेतः साध्यप्राप्त्यान्यथापि वा। प्राप्त्या चेद्यगपद्भावात्साध्यसाधनधर्मयोः।३५६॥ प्राप्तयोः कथमेकस्य हेतुतान्यस्य साध्यता / युक्तेति प्रत्यवस्थानं प्राप्त्या तावदुदाहृतम् / 357 / साध्य के अतिदेश मात्र से दृष्टान्त का दृष्टान्तत्व बन जाता है। उपमान प्रमाण से जानने योग्य पदार्थ की ज्ञप्ति करने में अतिदेशवाक्य साधक होता है। प्रकरणप्राप्त सूत्र में अतिदेश शब्द है, सामान्य रूप से साध्य का अतिदेश कर देना दृष्टान्त में पर्याप्त है। एतावता दृष्टान्त का साध्यपना असम्भव है। क्योंकि जिस पदार्थ में लौकिक और परीक्षक पुरुषों की बुद्धि का अभेद यानी साम्य दिखलाया जाता है, वह दृष्टान्त है। उससे अविपरीत अर्थ समझाने के लिए साध्य में अतिदेश कर दिया जाता है और ऐसा होने पर, साध्य के अतिदेश से किसी एक व्यक्ति का दृष्टान्तपना बन चुकने पर पुन: उस दृष्टान्त को साध्यपना नहीं बन सकता है। इसी बात को उस प्रकार उद्योतकर भी कहते हैं कि जो आप प्रतिवादी साध्यसमा में दृष्टान्त को ही साध्य कह रहे हैं, यह आपका कथन करना असम्भव है। उस प्रकार के कथन से आप दृष्टान्त का लक्षण ही नहीं समझ पाये हैं। दृष्टान्त नाम उसका निश्चय किया गया है जो प्रत्यक्ष आत्मक दर्शनों का विषय होता है, वह दृष्टान्त है - "दृष्टः अन्तो यत्र स दृष्टान्तः।" जबकि दर्शनों द्वारा वादी, प्रतिवादी, सभ्य पुरुषों के दृष्टान्त प्रत्यक्षित हो गया है, उसको साध्य कोटि में लाना असिद्ध है। यदि दृष्टान्त बनाने के लिए दर्शन का विघात किया जायेगा, तब तो दृष्टान्त नहीं माना जा सकता है। हेतु की साध्य के साथ प्राप्ति करके जो प्रत्यवस्थान (उलाहना) दिया जाता है, वह प्राप्तिसमा जाति है और अप्राप्ति करके जो फिर प्रत्यवस्थान दिया जाता है, वह अप्राप्तिसमा जाति है। समीचीन हेतु का वादी द्वारा कथन किये जा चुकने पर प्रतिवादी दोष उठाता है कि यह हेतु क्या साध्य को प्राप्त होकर साध्य की सिद्धि करायेगा? अथवा दूसरे प्रकार से भी? यानी साध्य को नहीं प्राप्त होकर हेतु साध्य की सिद्धि करा देगा? प्रथम पक्ष अनुसार साध्य के साथ सम्बन्ध हो जाने रूप प्राप्ति से यदि साध्य की सिद्धि मानी जायेगी, तब तो साध्य और हेतु इन दोनों धर्मों का काल एक साथ ही सद्भाव हो जाने से उनमें हेतुत्व और साध्यत्व के नियामक की विशेषता कैसे रहेगी? साध्य और हेतु जब दोनों ही एक स्थान में प्राप्त हैं, तो उनमें से एक को हेतुपना और दूसरे को साध्यपना कैसे युक्त हो सकेगा?

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