Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 297
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 284 का पुनः साध्यसमेत्याहहेत्वादिकांगसामर्थ्ययोगी धर्मोवधार्यते। साध्यस्तमेव दृष्टांते प्रसंजयति यो नरः // 349 // तस्य साध्यसमा जातिरुद्भाव्या तत्त्ववित्तकैः / यथा लोष्ठस्तथा चात्मा यथात्मायं तथा न किम् // 350 // लोष्ठः स्यात्सक्रियश्चात्मा साध्यो लोष्ठोपि तादृशः / साध्योस्तु नेति चेल्लोष्ठो यथात्मापि तथा कथं॥३५१ / / हेत्वाद्यवयवसामर्थ्ययोगी धर्मः साध्योऽवधार्यते तमेव दृष्टांते प्रसंजयति यो वादी तस्य साध्यसमा जातिस्तत्त्वपरीक्षकैरुद्भावनीया। तद्यथा-तत्रैव साधने प्रयुक्ते परः प्रत्यवस्थानं करोति यदि यथा लोष्ठस्तथात्मा, तदा यथात्मा तथायं लोष्ठः स्यात् सक्रिय इति, साध्यश्चात्मा लोष्ठोपि साध्योस्तु सक्रियः इति। अथ लोष्ठः क्रियावान् न साध्यस्तात्मापि क्रियावान् साध्यो मा भूत्, विशेषो वा वक्तव्य इति / / कथमासां दूषणाभासत्वमित्याह- . साध्य में साध्य का अर्थ हेतु, पक्ष आदि अनुमानांगों की सामर्थ्य से युक्त धर्म निर्णीत किया जाता है। उसी साध्य को जो प्रतिवादी मनुष्य दृष्टान्त में प्रसंग देने की प्रेरणा करता है, जिनके विद्या ही धन है, उन मनुष्य के द्वारा अथवा जो प्रकाण्ड तत्त्ववेत्ता विद्वान् हैं, उन करके साध्यसमा जाति उठानी चाहिए। वह मनुष्य कहता है कि यदि जिस प्रकार का लोष्ट है, उस प्रकार की आत्मा है तो जैसा आत्मा है वैसा लोष्ट क्यों नहीं होगा? यदि आत्मा क्रियावान् होता हुआ साध्य हो रहा है, तो पत्थर भी उस प्रकार का क्रियावान् सिद्ध क्यों नहीं कर लिया जाता है।३४९-३५०॥ जिस प्रकार यदि लोष्ट को क्रियावान् साधने योग्य नहीं कहोगे, तब तो उसी प्रकार आत्मा भी कैसे क्रियावान् साधने योग्य हो सकेगा? अर्थात्-नहीं। पत्थर तो सक्रिय हो और आत्मा सक्रिय नहीं हो, ऐसा कैसे हो सकता है॥३५१॥ न्यायभाष्यकार साध्य का अर्थ यों निर्णीत करते हैं कि अनुमान के हेतु, व्याप्ति आदि अवयवों या उपाङ्गों की सामर्थ्य का सम्बन्धी हो रहा धर्म साध्य है। उसका सम यानी उसी साध्य का जो वादी दृष्टान्त में प्रसंग दे रहा है तो तत्त्वों की परीक्षा करने वाले विद्वानों के द्वारा उस वादी के ऊपर साध्यसमा जाति उठानी चाहिए। उसका दृष्टान्त इस प्रकार है कि वहाँ ही प्रसिद्ध अनुमान में आत्मा के क्रियासहितपने को साध्य करने के लिए हेतु का प्रयोग कर चुकने पर उससे पृथक् दूसरा वादी प्रत्यवस्थान का विधान करता है कि जिस प्रकार का लोष्ट है उसी प्रकार का यदि आत्मा है, तब तो जैसा आत्मा है वैसा यह पत्थर क्रियासहित हो जायेगा। दूसरी बात यह है कि यदि आत्मा साध्य है तो पत्थर भी यथेच्छ क्रियासहित साध्य हो जायेगा। अब यदि पत्थर क्रियावान् साध्य नहीं है, तो आत्मा भी क्रियावान् साधने योग्य नहीं होवे। आत्मा या पत्थर में कोई विशेषता है तो वह तुमको यहाँ कहनी चाहिए। साध्यसमा और वैधर्म्यसमा जातियाँ दूषणाभास हैं, यह पहिले ही समझा दिया गया था। अब इन उत्कर्षसमा आदि छल जातियों का दूषणाभासपना किस प्रकार है? ऐसी शिष्य की जिज्ञासा होने पर आचार्यश्री कहते हैं -

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