________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 196 लिंगं येनाविनाभावि सोर्थः साध्योवधार्यते। न च धर्मी तथाभूतः सर्वत्रानन्वयात्मकः॥५६॥ न धर्मी केवल: साध्यो न धर्म: सिद्ध्यसंभवात्। समुदायस्तु साध्येत यदि संव्यवहारिभिः॥७॥ तदा तत्समुदायस्य स्वाश्रयेण विना सदा। संभवाभावतः सोपि तद्विशिष्टेः प्रसाध्यताम्॥५८॥ तद्विशेषोपि सोन्येन स्वाश्रयेणेति न क्वचित् / साध्यव्यवस्थितिर्मूढ चेतसामात्मविद्विषाम् // 59 // विनापि तेन लिंगस्य भावात्तस्य न साध्यता / ततो न पक्षतेत्येतदनुकूलं समाचरेत् // 60 // धर्मिणापि विना भावात्क्वचिल्लिंगस्य पक्षता / तस्य माभूत्तत: सिद्धः पक्षः साधनगोचरः॥६१॥ यादृगेव हि स्वार्थानुमाने पक्षः शक्यत्वादिविशेषणः साधनविषयस्तादृगेव परार्थानुमाने युक्तः स्वनिश्चयवदन्येषां निश्चयोत्पादनाय प्रेक्षावतां परार्थानुमानप्रयोगात्, अन्यथा तल्लक्षणस्यासंभवादिदोषानुषंगात्॥ ज्ञापक हेतु जिस साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाला हेतु है, वह पदार्थ साध्य होता है, यह निर्णय किया जाता है, उस प्रकार धर्मी साध्य नहीं होता है। क्योंकि धर्मी का सर्वत्र हेतु के साथ अविनाभाव सम्बन्ध नहीं है (अन्वयात्मक नहीं है) अर्थात् जहाँ-जहाँ धूम है- वहाँ-वहाँ अग्नि है ऐसा कथन करना तो उचित है। किन्तु जो जो धूमवान् होता है वह-वह अग्निवाला होता है यह अन्वय ठीक नहीं है (क्योंकि हेतु की साध्य के साथ व्याप्ति है, हेतुमान का साध्यमान के साथ अविनाभाव नहीं है। हेतु के साथ अधिकरण को लगाकर पुन: व्याप्ति बनाने से अन्वय दृष्टान्त नहीं मिलता है। व्याप्ति में तो साध्य धर्म ही होता है, धर्मी नहीं। अन्यथा व्याप्ति घटित नहीं होती है।) इसलिए केवल धर्मी साध्य नहीं होता है। क्योंकि अकेले धर्म या धर्मी की सिद्धि होना असंभव है। समीचीन व्यवहार को जानने वाले पुरुषों के द्वारा यदि धर्म और धर्मी का समुदाय सिद्ध किया जाता है, तो सर्वदा समुदाय का स्वकीय आश्रय के बिना रहना संभव नहीं है। इसलिए वह समुदाय भी स्वकीय आश्रय से विशिष्ट ही साधने (सिद्ध करने) योग्य है। तथा, उस आश्रय से विशिष्टसमुदाय अन्य स्वाश्रय से विशिष्ट साधने योग्य है और इस प्रकार कथन करने से कहीं पर भी विश्रान्ति न होने से अनवस्था दोष आता है। अत: आत्मा से द्वेष रखने वाले (जिन-धर्म से बहिर्भूत) मूढ़ चित्तवाले को कहीं पर भी साध्य की व्यवस्था नहीं हो सकती॥५६-५९॥ उस धर्म विशिष्ट धर्मी रूप पक्ष के बिना भी ज्ञापक हेतु का सद्भाव पाया जाता है। इसलिए समुदाय के साध्यता नहीं है। अतः समुदाय के पक्षपना भी नहीं है। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं- इस प्रकार कथन करना तो हमारे अनुकूल आचरण ही है। अथवा-कहीं-कहीं धर्मी रूप पक्ष के बिना भी ज्ञापक हेतु का सद्भाव पाया जाता है। अत: उस धर्मी को पक्षपना नहीं हो सकता है। इसलिए सिद्ध होता है कि स्वार्थानुमान के समान वाद में भी शक्य, अभिप्रेत, अप्रसिद्ध माने गये साध्य को सिद्ध करने वाले हेतु के विषयभूत धर्मी को ही पक्ष मानना चाहिए।।६०-६१॥ जैसा, स्वार्थानुमान में शक्यत्व आदि विशेषणों से युक्त ज्ञापक हेतु का विषय हो रहा प्रतिज्ञा रूप पक्ष है, उसी प्रकार का पक्ष परार्थ अनुमान में भी स्वीकार करना युक्त है। क्योंकि स्वकीय निश्चय के समान