Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 288
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 275 चास्ति विशेषः क्रियावत्साधर्म्यात् क्रियावता भवितव्यं, न पुनर्निष्क्रियसाधात् अक्रियेणेति विशेषहेत्वभावात्साधर्म्यसमदूषणाभासो भवतीत्यत्र वार्तिककार एवमाह-साधर्म्यणोपसंहारे तद्विपरीतसाधर्म्यणोपसंहारे तत्साधर्म्यण प्रत्यवस्थानं साधर्म्यसमः। यथा अनित्यः शब्द उत्पत्तिधर्मकत्वात् / उत्पत्तिधर्मकं कुंभाद्यनित्यं दृष्टमिति वादिनोपसंहृते परः प्रत्यवतिष्ठते / यद्यनित्यघटसाधादयमनित्यो नित्येनाप्यस्याकाशेन साधर्म्यममूर्तत्वमस्तीति नित्यप्राप्तः, तथा अनित्यः शब्द उत्पत्तिधर्मकत्वात् यत्पुनरनित्यं न भवति तन्नोत्पत्तिधर्मकं यथाकाशमिति प्रतिपादिते पर: प्रत्यवतिष्ठते। यदि नित्याकाशवैधादनित्यः शब्दस्तदा साधर्म्यमप्यस्याकाशेनास्त्यमूर्तत्वमतो नित्यः प्राप्तः। अथ सत्यप्येतस्मिन् साधर्म्य न नित्यो भवति, न तर्हि वक्तव्यमनित्यघटसाधान्नित्याकाशवैधाद्वा अनित्यः शब्द इति। सेयं जाति: विशेषहेत्वभावं दर्शयति ___ इस प्रकार उक्त दोनों सिद्धान्तों में कोई अन्तर नहीं है, जिससे कि क्रियावान् डेल के सद्धर्मापन क्रियाहेतुगुणाश्रयत्व से. आत्मा क्रियावान् तो हो जाय, किन्तु फिर क्रियारहित आकाश के साधर्म्य हो रहे विभुत्व से निष्क्रिय नहीं हो सके। इस प्रकार कोई विशेष हेतु के नहीं होने से यह साधर्म्य सम नामक दूषणाभास हो जाता है। साधर्म्यसमा जाति के विषय में यहाँ न्यायवार्तिककारक पण्डित गौतम सूत्र का अर्थ इस प्रकार कहते हैं कि अन्वय दृष्टान्त की सामर्थ्य से साधर्म्य के द्वारा उपसंहार करने पर अथवा व्यतिरेक दृष्टान्त की सामर्थ्य से उस साध्यधर्म के विपरीत अर्थ का समान धर्मापन करके उपसंहार कर चुकने पर पुनः प्रतिवादी द्वारा उस साधर्म्य करके दूषण उठाना साधर्म्यसम नाम का प्रतिषेध है। जैसे कि शब्द (पक्ष) अनित्य है (साध्य) उत्पत्तिनामक धर्म को धारण करने वाला होने से (हेतु) जैसे-उत्पत्ति नामके धर्म के धारक घड़ा आदि पदार्थ अनित्य हैं। इस प्रकार वादी के द्वारा स्वकीय प्रतिज्ञा का उपसंहार किये जाने पर दूसरा प्रतिवादी प्रत्यवस्थान दे रहा है कि अनित्य घट के साधर्म्य से यदि यह शब्द अनित्य है, तब तो नित्य आकाश के साथ भी इस शब्द का साधर्म्य अमूर्त्तपना है। अपकृष्ट परिणाम धारक द्रव्यों को मूर्त द्रव्य कहते हैं। वैशेषिकों के यहाँ पृथिवी, जल, तेज, वायु और मन ये पाँच द्रव्य ही मूर्त माने गये हैं। शेष आकाश, काल; दिशा, आत्मा ये चार द्रव्य अमूर्त हैं / गुणों में गुण नहीं रहते हैं। शब्द नामक गुण में परिमाण या रूप आदिक दूसरे गुण नहीं पाये जाते हैं। अतः शब्द और आकाश दोनों अमूर्त हैं। अत: अमूर्तपना होने से आकाश के समान शब्द को नित्यपना प्राप्त होता है। यह साधर्म्य से उपसंहार किये जाने पर साधर्म्यसम का एक प्रकार हुआ तथा दूसरा प्रकार विपरीत साधर्म्य के द्वारा उपसंहार किये जाने पर होता है। जैसे शब्द अनित्य है (प्रतिज्ञा) उत्पत्तिमान धर्म वाला होने से (हेतु) जो पदार्थ अनित्य नहीं है, वह उत्पत्ति धर्म वाला नहीं हो सकता। जैसे आकाश (व्यतिरेक दृष्टान्त) / इस प्रकार वादी द्वारा प्रतिपादन किया जाने पर दूसरा प्रतिवादी प्रत्यवस्थान (उलाहना) देता है कि नित्य आकाश के साथ वैधर्म्य होने से यदि शब्द अनित्य माना जाता है, तब तो आकाश के साथ भी इस शब्द का अमूर्तपना साधर्म्य है। अत: शब्द को नित्यपना प्राप्त हो जाता है। फिर भी यदि कोई इस प्रकार कहे कि इस अमूर्तत्व साधर्म्य के होने पर भी शब्द नित्य नहीं होता है, तब तो हम कहेंगे कि यों तो अनित्य हो रहे घट के साधर्म्य से अथवा नित्य आकाश के वैधर्म्य से शब्द का अनित्यपना भी नहीं कहना चाहिए।

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