________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 279 नैवमात्मा ततो नायं निष्क्रियः संप्रतीयते / साधर्येणापि तत्रैवं प्रत्यवस्थानमुच्यते // 335 // क्रियावानेव लोष्ठादिः क्रियाहेतुगुणाश्रयः। दृष्टास्तादृक्स जीवोपि तस्मात्सक्रिय एव सः॥३३६॥ इति साधर्म्यवैध→समयोर्दूषणोद्भवात्। सधर्मत्वविधर्मत्वमात्रात्साध्यप्रसिद्धितः॥३३७॥ अथोत्कर्षापकर्षवर्ध्यावर्ण्यविकल्पसाध्यसमा साभासा विधीयतेसाध्यदृष्टांतयोर्धर्मविकल्पाद्वयसाध्यता / सद्भावाच्च मता जातिरुत्कर्षेणापकर्षतः // 338 // वावर्ण्यविकल्पैश्च साध्येन च समाः पथक। तस्याः प्रतीयतामेतलक्षणं सन्निदर्शनम॥३३९॥ होने से-यहाँ प्रतिवादी द्वारा साधर्म्य से भी इस प्रकार प्रत्यवस्थान कहा जाता है, क्रियावान् पत्थर आदि पदार्थ क्रियाहेतुगुणों के आधार देखे जाते हैं, उसी प्रकार वह प्रसिद्ध आत्मा भी क्रिया हेतु गुणों का आश्रय है। अत: वह आत्मा क्रियावान् ही है। इसमें कोई विशेषता नहीं है कि वादी के द्वारा कहे गये क्रियावान् के वैधर्म्य विभुत्व से आत्मा आकाश के समान निष्क्रिय तो हो जाय, किन्तु फिर प्रतिवादी के द्वारा कहे गये क्रियावान् के साधर्म्य क्रिया हेतुगुणाश्रयत्व से आत्मा पत्थर के समान क्रियावान नहीं हो, इस पक्षपात ग्रस्त नियम को बनाने के लिए वादी के पास कोई विशेष हेतु नहीं है। यह सूत्र और भाष्य के अनुसार पहिले साधर्म्यसमा और अब वैधर्म्यसमा जाति का उदाहरण सहित लक्षण कह दिया गया है। नैयायिक इन दोनों जातियों में अनेक दूषणों के उत्पन्न हो जाने से इनको असत् उत्तर मानते हैं। क्योंकि किसी के केवल सदृश धर्मापन या विसदृश धर्मापन से ही किसी साध्य की सिद्धि नहीं हो जाती है। अतः प्रतिवादी का उत्तर प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता है।३३१-३३७॥ इन दो जातियों के निरूपण अनन्तर अब गौतमसूत्र के अनुसार दोष आभास सहित उत्कर्षसमा, अपकर्षसमा, वर्ण्यसमा, अवर्ण्यसमा, विकल्पसमा, साध्यसमा-इन छह जातियों का कथन किया जाता है। . साध्य और दृष्टान्त के विकल्प से अर्थात् पक्ष और दृष्टान्त में से किसी भी एक में धर्म की विचित्रता से तथा उभय के साध्यपन का सद्भाव हो जाने से उत्कर्षसमा, अपकर्षसमा, वर्ण्यसमा, अवर्ण्यसमा, विकल्पसमा, साध्यसमा ये छह जातियाँ पृथक्-पृथक् मान ली गयी हैं। अर्थात् पक्ष और दृष्टान्त के धर्म विकल्प से पहली पाँच जातियाँ होती हैं और पक्ष, दृष्टान्त दोनों के हेतु आदि धर्मों को साध्यपना करने से छट्ठी साध्य समाजाति होती है। प्रकृत में साध्य और साधन में से किसी भी एक विकल्प के सद्भाव से अविद्यमान हो रहे धर्मपक्ष में आरोप करना उत्कर्षसमा है। - अपकर्षसमा जाति में साध्य और दृष्टान्त के सहचरित धर्म का विकल्प यानी असत्त्व दिखाया जाता है। हेतु और साध्य में से अन्यतर के अभाव का प्रसंग देना अपकर्षसमा जाति है। दृष्टान्त में साध्य धर्म की विकलता और साधन धर्म की विकलतारूप देशनाभास जाति है। इस प्रकार साध्य धर्म का संदेह हो जाने से साध्य और दृष्टान्त में धर्म के विकल्प से यह पाँच जातियों का मूल लक्षण यहाँ भी घटित हो जाता है। साध्य के वर्ण्यत्व को (पक्ष के संदिग्ध साध्यकत्व को) दृष्टान्त में आपादन करना वर्ण्यसमा जाति है। अवर्ण्यसमा में जैसे घट आदि ख्यापनीय नहीं हैं वैसे ही शब्द भी अवर्ण्य है। कोई विशेषता नहीं है। इस