________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 277 चाऽनित्यत्वाभावे अभावादन्वयव्यतिरेकि शब्दे समुपलभ्यमानमनित्यत्वस्य साधनं, न पुनरनित्यघटसाधर्म्यमात्रसत्त्वादिनाप्याकाशवैधर्म्यमात्रममूर्तत्वादि तस्यान्वयव्यतिरेकित्वाभावात् / ततस्तेन प्रत्यवस्थानमयुक्तं दूषणाभासत्वादिति / एतेनात्मनः क्रियावत्साधर्म्यमात्रं निष्क्रियवैधर्म्यमानं वा क्रियावत्त्वसाधनं प्रत्याख्यातमनन्वयव्यतिरेकित्वात्, अन्वयव्यतिरेकिण एव साधनस्य साध्यसाधनसामर्थ्यात् / तत्रैव प्रत्यवस्थानं वैधयेणोपदर्श्यते। यः क्रियावान्स दृष्टोत्र क्रियाहेतुगुणाश्रयः॥३२९॥ यथा लोष्ठो न वात्मैवं तस्मानिष्क्रिय एव सः। पूर्ववदूषणाभासो वैधर्म्यसम ईक्ष्यताम् // 330 // क्रियावानात्मा क्रियाहेतुगुणाश्रयत्वाल्लोष्ठवदित्यत्र वैधपेण प्रत्यवस्थानं, यः क्रियाहेतुगुणाश्रयो लोष्ठः रहता है। परन्तु नित्य आकाश परम महापरिमाण आदि विपक्षों में उत्पत्ति सहितपन हेतु का अभाव होने से उनमें अनित्यत्व का अभाव है। इस प्रकार अन्वय व्यतिरेकों को धारने वाला उत्पत्तिधर्म सहितपन हेतु शब्द में देखा जाता है। अतः अनित्यत्व का साधक है। किन्तु फिर अनित्य घट के साथ साधर्म्यमात्र को धारने वाले सत्त्व, प्रमेयत्व, आदिक व्यभिचारी हेतुओं के द्वारा शब्द में अनित्यत्व की सिद्धि नहीं होती है। अन्वय घट जाने पर भी उनमें व्यतिरेक नहीं घटित होता है। विधर्मपने को प्राप्त आकाश के साथ शब्द का अमूर्तत्व आदि से साधर्म्य है। किन्तु सर्वदा, सर्वत्र, व्यतिरेक के नहीं घटित होने पर अमूर्तत्व, अचेतनत्व आदि हेतु शब्द के नित्यपने को साध नहीं सकते हैं। अत: उस अन्वय व्यतिरेक सहित के नहीं घटित हो जाने से प्रतिवादी द्वारा यह दूषण उठाना युक्त नहीं है। क्योंकि अन्वय व्यतिरेकों को नहीं धारण करने वाले हेतुओं का साधर्म्य वैधर्म्य नहीं बन पाता है। अतः प्रतिवादी के आक्षेपमात्र दूषणाभास हैं। इस उक्त कथन से इसका भी प्रत्याख्यान कर दिया है कि जो विद्वान् केवल क्रियावान् पदार्थों के साथ समान धर्मत्व होने से आत्मा के क्रियावत्त्व का साधक मानते हैं, अथवा क्रियारहित पदार्थों के केवल विधर्मत्व को आत्मा के क्रियावत्त्व का ज्ञापक हेतु मानते हैं। परन्तु इन क्रियावत्साधर्म्य और निष्क्रिय वैधर्म्य में अन्वय व्यतिरेकों का सद्भाव नहीं पाया जाता है। सिद्धान्त में अन्वय व्यतिरेक वाले हेतु को ही साध्य को साधने में समर्थ माना है। आत्मा क्रियावान् है, क्रिया के हेतुभूत गुण का आश्रय होने से, जैसे पत्थर। इस अनुमान में ही साध्य के विधर्मत्व से प्रतिवादी द्वारा दूषण दिखलाया गया है। जो क्रिया के कारणभूत गुण का आश्रय देखा गया है, वह क्रियावान् अवश्य है, जैसे कि फेंका जा रहा पत्थर। किन्तु आत्मा तो इस प्रकार क्रिया के कारणभूत गुण का आश्रय नहीं है। अत: वह आत्मा क्रियारहित ही है। नैयायिक कहते हैं कि यह प्रतिवादी का कथन भी पूर्व साधर्म्यसम जाति के समान वैधर्म्यसम नाम का दोषाभास ही है। क्योंकि क्रियावान् के साधर्म्य से आत्मा क्रियावान् पदार्थ के वैधर्म्य से आत्मा क्रियारहित नहीं है। इसमें कोई विशेष हेतु नहीं है- यह प्रतिवादी का वैधर्म्यसम प्रतिषेध है।।३२९-३३०॥ * आत्मा चलना, मर कर अन्यत्र स्थान में जाकर जन्म लेना आदि क्रियाओं से युक्त है। क्योंकि वह क्रिया के प्रेरक हेतु प्रयत्न, पुण्य, पाप, संयोग इन गुणों का धारक है।