Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 286
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *273 यत्राविशिष्यमाणेन हेतुना प्रत्यवस्थितिः। साधर्म्यण समा जाति: सा साधर्म्यसमा मता // 322 // निर्वक्तव्यास्तथा शेषास्ता वैधर्म्यसमादयः / लक्षणं पुनरेतासां यथोक्तमभिभाष्यते // 323 // अत्र जातिषु या साधर्म्यण प्रत्यवस्थितिरविशिष्यमाणस्थापनाहेतुतः सा साधर्म्यसमा जातिः। एवमविशिष्यमाणस्थापनाहेतुतो वैधhण प्रत्यवस्थिति: वैधर्म्यसमा। तथोत्कर्षादिभिः प्रत्यवस्थितयः उत्कर्षादिसमा इति निर्वक्तव्याः। लक्षणं तु यथोक्तमभिभाष्यते तत्र // साधर्येणोपसंहारे तद्धर्मस्य विपर्ययात् / यस्तत्र दूषणाभासः स साधर्म्यसमो मतः॥३२४॥ यथा क्रियाभृदात्मायं क्रियाहेतुगुणाश्रयात् / य ईदृक्षः स ईदृक्षो यथा लोष्ठस्तथा च सः / 325 / जहाँ विशेषता को नहीं प्राप्त हेतु के द्वारा साधर्म्य से प्रत्यवस्थान दिया जाता है, वह नैयायिकों के यहाँ साधर्म्यसमा जाति मानी गयी है। तथा उसी प्रकार शेष बची हुई उन वैधर्म्यसमा, उत्कर्षसमा आदि जातियों की भी शब्दों द्वारा निरुक्ति कर लेना चाहिए। इन साधर्म्यसमा आदिक जातियों का न्याय दर्शन ग्रन्थ के अनुसार कहा गया लक्षण यथावसर कह दिया जाएगा // 322-323 / / इन जातियों में जो साधर्म्य के द्वारा प्रत्यवस्थान देना है, वह साध्य की स्थापना करने वाले हेतु से अविशिष्ट साधर्म्यसमा जाति है। इसी प्रकार, वैधर्म्य से उपसंहार करने पर स्थापना हेतु से अविशिष्टता रखने वाला जो प्रत्यवस्थान है, वह वैधर्म्यसमा जाति है। तथा स्थापना हेतुओं से उत्कर्ष, अपकर्ष, वर्ण्य, अवर्ण्य आदि करके जो प्रत्यवस्थान देते हैं, वे उत्कर्षसमा, अपकर्ष समा आदिक जातियाँ हैं। इस प्रकार प्रकृति, प्रत्यय आदि के द्वारा जातियों की निरुक्ति कर लेनी चाहिए। उनका लक्षण नैयायिकों के सिद्धान्त अनुसार कहा गया उन-उन प्रकरणों में भाष्य या विवरण से परिपूर्ण कह दिया जाएगा। उन चौबीस जातियों में पहिली साधर्म्यसमा जाति का लक्षण कहते हैं - . . वादी द्वारा साधर्म्य से हेतु का पक्ष में उपसंहार कर चुकने पर उस साध्यधर्म के विपर्यय धर्म की उपपत्ति करने से जो वहाँ दूषणाभास उठाया जाता है, वह साधर्म्यसम प्रतिषेध माना गया है। जैसे यह आत्मा (पक्ष) हलन, चलन आदि क्रियाओं को धारने वाला है (साध्य), क्रियाओं के कारणभूत गुणों का आश्रय होने से (हेतु) जो क्रिया के हेतुभूत गुणों का आधार है, वह क्रियावान अवश्य है। जैसे फेंका गया पत्थर (अन्वय दृष्टान्त)। उसी प्रकार का क्रिया हेतु गुणाश्रय वह आत्मा है (उपनय)। अत: गमन, भ्रमण, उत्पतन, आदि क्रियाओं को यह आत्मा धारण कर रहा है (निगमन)। भावार्थ - जैसे पत्थर में क्रिया के कारणभूत संयोग, वेग, गुरुत्व आदि गुण विद्यमान हैं और आत्मा में अदृष्ट (धर्म अधर्म) प्रयत्न, संयोग, गुण, क्रिया के कारण हैं। अतः आत्मा में उनका फल क्रिया होनी चाहिए। इस प्रकार उपसंहार कर वादी द्वारा समीचीन हेतु के कहे जाने पर कोई प्रतिवादी इसके विपर्यय में कह रहा है कि जीव (पक्ष) क्रियारहित है (साध्य), व्यापकद्रव्यपना होने से (हेतु)। जैसे आकाश (अन्वयदृष्टान्त)। अत: जैसे व्यापक द्रव्य होने से आकाश निष्क्रिय है, उसी प्रकार व्यापक आत्मा भी क्रियारहित है। अर्थात् जब कोई स्थान ही रीता नहीं बचा है तो व्यापक आत्मा क्रिया कहाँ करे? अर्थात्

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