Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 273
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 260 यत्र पक्षे वादिप्रतिवादिनोर्विप्रतिपत्त्या प्रवृत्तिस्तत्सिद्धिरेवैकस्य जयः पराजयोन्यस्य, न पुनः पत्रवाक्यार्थानवस्थापनमिति ब्रुवाणस्य कथं छलमात्रेण प्रतिज्ञाहान्यादिदोषैश्च स पराजय: स्यात् पत्रं दातुरादातुश्चेति चिंत्यतां / न हि पत्रवाक्यविदर्थे तस्य वृत्तिस्तत्सिद्धिश्च पत्रं दातुर्जय आदातुः पराजयस्तन्निराकरणं वा तदा दातुर्जयोऽदातुः पराजय इति च द्वितीयार्थेपि तस्य वृत्तिसंभवात्, प्रमाणतस्तथापि प्रतीते: समानप्रकरणादिकत्वाद्विशेषाभावात्। तथाढ्यो वै देवदत्तो नवकंबलत्वात्सोमदत्तवत् इति प्रयोगेपि यदि वक्तुर्नव: कंबलोस्येति नवास्य कंबला इति वार्थद्वयं नवकंबलशब्दस्याभिप्रेतं भवति तदा कुतोस्य नवकंबला इति प्रत्यवतिष्ठमानो हेतोरसिद्धतामेवोद्भावयति न पुनश्छलेन प्रत्यवतिष्ठते / तत्परिहाराय च चेष्टमानस्तदुभयार्थसमर्थनेन तक अपने पक्ष की सिद्धि नहीं की जाती है तथा गूढपदवाले पत्रदाता और पक्ष के गृहीता की वह पराजय कैसी? __अत: यह निश्चित है कि अपने पक्ष की सिद्धि करने पर ही वादी की जय और प्रतिवादी की पराजय होती है, अन्यथा नहीं॥२९०-२९१॥ जिस पक्ष में वादी और प्रतिवादी की विप्रतिपत्ति (विवाद) करके प्रवृत्ति हो रही है, उसकी सिद्धि हो जाने से ही एक की जय और अन्य की पराजय मानी जाती है। किन्तु फिर पत्र में स्थित वाक्य के अर्थ की व्यवस्था नहीं होने देना कोई किसी की जय, पराजय नहीं है। अथवा केवल अनेक अर्थपन का प्रतिपादन कर देना ही जय, पराजय नहीं। इस प्रकार कहने वाले नैयायिक के यहाँ केवल छल कह देने से और प्रतिज्ञाहानि आदि दोषों के द्वारा पत्र देने वाले और लेने वाले की वह पराजय कैसे हो सकती है? इसकी तुम स्वयं चिन्ता (चिन्तन) करो अर्थात् - जब स्वकीय पक्ष की सिद्धि और असिद्धि जय पराजय व्यवस्था का प्राण है, तो केवल प्रतिवादी द्वारा छल या निग्रहस्थान उठा देने से ही गूढ अर्थ वाले पत्र को देने वाले वादी की कैसे पराजय हो सकती है? __गूढ़ पत्र द्वारा समझाने योग्य जिस अर्थ में उस वादी की वृत्ति है, उसकी सिद्धि कर देने से गूढ़ पत्र को देने वाले वादी की जय और पत्र का ग्रहण करने वाले प्रतिवादी की पराजय हो. जाती है, अथवा उस पत्रलिखित अर्थ का प्रतिवादी द्वारा निराकरण कर देने पर उस पत्र को लेने वाले प्रतिवादी की विजय और पत्र को देने वाले वादी की पराजय हो जाती है। नैयायिकों का ऐसा भी कहना उचित नहीं है, क्योंकि गूढ़ पत्र के कई अर्थ सम्भव हैं। अत: दूसरे अर्थ में भी उस वादी की वृत्ति होना सम्भव है। क्योंकि प्रकरणों से उस प्रकार भी प्रतीत होता है। प्रकरण, तात्पर्य, अवसर, आकांक्षा आदि की समानता भी मिल रही है। कोई विशेषता नहीं है कि यही अर्थ पकड़ा जाय, दूसरा नहीं लिया जाय। तथा जो वाक्छल के प्रकरण में अनुमान कहा गया है कि यह देवदत्त अवश्य ही धनवान है, नव कंबलवाला होने से सोमदत्त के समान। इस अनुमान प्रयोग में भी वक्ता को नव कंबल शब्द के दोनों ही अर्थ अभीष्ट हैं कि इसके निकट नवीन कंबल है और इसके यहाँ संख्या में नौ कंबल हैं, तब जो प्रतिवादी के द्वारा दूषण उठाया जा रहा है कि इस देवदत्त के पास एक कम दस कम्बल तो नहीं हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि वह प्रत्यवस्थान करने वाला प्रतिवादी वादी द्वारा प्रयुक्त किये हेतु के असिद्धपन को ही उठा रहा है, किन्तु फिर छल करके तो दूषण नहीं दे रहा है। अत: उस प्रतिवादी को छली बनाकर पराजय देना उचित नहीं। प्रतिवादी द्वारा लगाये गये उस असिद्ध दोष के परिहार के लिए चेष्टा करने वाला वादी उन दोनों अर्थों का समर्थन करके अथवा उन दोनों

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