Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 281
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 268 हि स्थान्यर्थो गुणशब्दः प्रधानशब्दः स्थानार्थ इति कल्पयित्वा प्रतिषिध्यते नान्यथेति। नैतत्सारं / अर्थांतरकल्पनातोर्थसद्भावप्रतिषेधस्यान्यथात्वात्, किंचित्साधात्तयोरेकत्वे वा त्रयाणामपि. छलानामेकत्वप्रसंगः। अथ वाक्छलसामान्यछलयोः किंचित्साधर्म्य सदपि द्वित्वं. न निवर्तयति, तर्हि तयोरुपचारछ लस्य च किंचित्साधर्म्य विद्यमानमपि त्रित्वं तेषां न निवर्तयिष्यति, वचनविघातस्यार्थविकल्पोपपत्त्या त्रिष्वपि भावात्। ततोन्यदेव वाक्छलादुपचारछलं। तदपि परस्य पराजयायावकल्पते यथावकत्रभिप्रायमप्रतिषेधात्। शब्दस्य हि प्रयोगो लोके प्रधानभावेन गुणभावेन च प्रसिद्धः। तत्र यदि वक्तुर्गुणभूतोर्थोऽभिप्रेतस्तदा तस्यानुज्ञानं प्रतिषेधो वा विधीयते, प्रधानभूतश्चेत्तस्यानुज्ञानप्रतिषेधौ ___ अर्थात् - वाक्छल में भी प्रतिवादी द्वारा अर्थान्तर की कल्पना की गयी है और उपचार छल में भी प्रतिवादी ने अन्य प्रकार से दूसरे अर्थ की कल्पना कर दोष उठाया है। जैसे - मचान गा रहे हैं, यहाँ भी मंच शब्द का स्थानी (आधेय पुरुष) अर्थ गौण है और स्थान अर्थ (अधिकरण) प्रधान है। इस प्रधान अर्थ प्रतिपादक शब्द की कल्पना कर प्रतिवादी द्वारा प्रतिषेध किया जा रहा है। अन्य प्रकारों से तो निषेध हो नहीं सकता। क्योंकि दोनों में इसके अतिरिक्त कोई दूसरा प्रकार नहीं है। अत: दोनों छलों में कोई भेद नहीं है। उस प्रश्न का न्यायभाष्यकार उत्तर कहते हैं कि यह आक्षेप तो निःसार है। क्योंकि उस अर्थसद्भाव के प्रतिषेध का पृथग्भाव है। इसका अर्थ यह है कि अर्थान्तर की कल्पना करना रूप वाक्छल से अर्थ के सद्भाव का प्रतिषेध कर देना स्वरूप उपचार छल का विभिन्न पना है। दोनों छलों का प्रयोजक धर्म पृथक्पृथक् है। कुछ थोड़े से समान धर्मापने के कारण यदि उन वाक्छल और उपचार छल को एकपना अभीष्ट किया जायेगा, तब तो तीनों भी छलों के एकपन का प्रसंग आयेगा। नैयायिक कहते हैं कि वाक्छल और सामान्य छल-इन दोनों में कुछ समानधर्मापन यद्यपि विद्यमान है, तो भी वह उनके दो पन की निवृत्ति नहीं कर पाता। ऐसा किसी का प्रश्न होने पर हम नैयायिक उत्तर देंगे कि तब तो उन सामान्य छल, वाक्छल और उपचार छल का कुछ-कुछ सधर्मापन रहते हुए भी उन छलों के तीनपने की निवृत्ति नहीं करा सकेगा। अर्थविकल्प की उपपत्ति से वादी प्रतिपादित वचन का विघात इन छलों के सामान्य लक्षण का तीनों छलों में सद्भाव पाया जाता है। भावार्थ - “प्रमिति करणं प्रमाणं'। इस सामान्य लक्षण के सम्पूर्ण प्रमाण के भेद-प्रभेदों में घटित हो जाने पर ही प्रत्यक्ष, अनुमान या इन्द्रियप्रत्यक्ष, मानसप्रत्यक्ष, स्वार्थानुमान, परार्थानुमान आदि में प्रमाणविशेष लक्षणों का समन्वय करने पर उन विशेषों का पृथग्भाव बन पाता है। अत: सिद्ध होता है कि वाक्छल से उपचार छल भिन्न ही है। किन्तु उक्त दो छलों के समान प्रवृत्त किया गया वह उपचार छल भी दूसरे प्रतिवादी की पराजय कराने के लिए समर्थ हो जाता है। क्योंकि प्रतिवादी ने वक्ता के अभिप्रायों के अनुसार प्रतिषेध नहीं किया है। शब्द का प्रयोग करना लोक में प्रधान भाव और गौण भाव दोनों प्रकारों से प्रसिद्ध है, तो वहाँ वक्ता को यदि गौण अर्थ अभीष्ट है, तब तो उसी गौण अर्थ का वादी के विचार अनुसार प्रतिवादी को स्वीकार करना चाहिए और उसी गौण अर्थ का प्रतिवादी को प्रतिषेध करना उचित है, तथा वादी को शब्द का यदि प्रधानभूत अर्थ अभिप्रेत है, तब उस प्रधान अर्थ का ही प्रतिवादी द्वारा अनुज्ञान और प्रतिषेध करना चाहिए, न छन्दतः (अपनी इच्छा अनुसार स्वच्छन्दता से) अनुज्ञान और प्रतिषेध नहीं करना

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