________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 267 जनैस्तथा प्रयोगः क्रियते गौणशब्दार्थश्रयणात् सामान्यादिष्वस्तीति शब्दप्रयोगवत् तस्य धर्माध्यारोपनिर्देशे सत्यर्थस्य प्रतिषेधनं न मंचाः क्रोशंति मंचस्था: पुरुषाः क्रोशंतीति / तदिदमुपचारछलं प्रत्येयं / धर्मविकल्पनिर्देशे अर्थसद्भावप्रतिषेध उपचारछलं इति वचनात् / का पुनरत्रार्थविकल्पोपपत्तिर्यथा वचनविघातश्छलमिति, अन्यथा प्रयुक्तस्याभिधानस्यान्यथार्थपरिकल्पनं / भक्त्या हि प्रयोगोऽयं मंचा: क्रोशंतीति तात्स्थ्यात्तच्छब्दोपचारात् प्राधान्येन तस्य परिकल्पनं कृत्वा परेण प्रत्यवस्थान विधीयते / कः पुनरुपचारो नाम? साहचर्यादिना निमित्तेन तदभावेपि तद्वदभिधानमुपचारः। यद्येवं वाक्छलादुपचारछलं न भिद्यते अर्थांतरकल्पनाया अविशेषात् / इहापि आधेय पुरुषों के धर्म गाना, गाली देना, रोना आदि का आरोप कर व्यवहारी मनुष्यों के द्वारा उस प्रकार शब्दों का प्रयोग किया जाता है। जैसे कि द्रव्य,गुण, कर्म, तीन तो सत्ता जाति के समवाय सम्बन्ध वाले हैं। शेष सामान्य , विशेष, समवायों में गौणरूप से अस्ति शब्द का प्रयोग माना गया। उसी प्रकार शब्द के गौण अर्थ का आश्रय कर मंच शब्द कहा गया है। वादी द्वारा उसके धर्म का अध्यारोप कथन करने पर पुनः प्रतिवादी द्वारा शब्द के प्रधान अर्थ का आश्रय कर उस अर्थ का निषेध किया जा रहा है कि मचान तो गाली नहीं दे रहा है, किन्तु मचानों पर बैठे हुए मनुष्य गाली दे रहे हैं। इस प्रकार उपचार छल समझ लेना चाहिए। गौतम ऋषि का इस प्रकार वचन है कि धर्म के विकल्प का कथन करने पर अर्थ के सद्भाव का प्रतिषेध कर देना उपचारछल है। न्यायभाष्यकार कहते हैं कि यहाँ उपचार छल में फिर अर्थ विकल्प की उपपत्ति क्या है? जिससे कि वचन का विघात होकर यह छल हो सकता है। अर्थात् - अर्थ के विकल्प से वचन का विघात होना, यह छल का सामान्य लक्षण है। उपचार छल में अर्थ विकल्प की उपपत्ति से वादी के वचन का विघात होना, यह सामान्य कथन अवश्य घटित होना चाहिए। क्योंकि भक्ति से अन्य प्रकारों से प्रयुक्त किये गये शब्द का दूसरे भिन्न प्रकारों से अर्थ की परिकल्पना करना अर्थ विकल्पोपपत्ति है। जब कि मचान गा रहे हैं, यह प्रयोग गौणरूप से किया गया है। क्योंकि तत्र स्थित में तत् को कहने वाले शब्द का उपचार है। इस प्रकार गौण अर्थों में शब्दों की लोकप्रसिद्धि होने पर प्रधानता से उस अर्थ की सब ओर से कल्पना कर दूसरे प्रतिवादी द्वारा दोष उत्थापन किया जाता है। पुन: न्यायभाष्यकार के प्रति किसी का प्रश्न है कि उपचार छल में उपचार का अर्थ क्या है? उत्तर है कि सहचारीपन, कारणता, क्रूरता आदि निमित्तों के कारण उससे रहित अर्थ में भी प्रयोजनवश उस वाले का कथन करना उपचार है। अर्थात् निमित्त और प्रयोजन के अधीन उपचार होता है। जैसे मंचा: क्रोशन्ति, यहाँ मंच का सहचारी होने से मंचस्थ को मंच कह दिया जाता है। “अन्नं वै प्राणा:" प्राण के कारण अन्न को प्राण कह दिया जाता है। "धनं प्राणाः" प्राण के कारण अन्न और अन्न के कारण धन को उपचरितोपचार से प्राण मान लिया जाता है। न्यायभाष्यकार के प्रति कोई कहता है कि यदि आप इस प्रकार मानेंगे, तब तो वाक्छल, उपचार छल का कोई भेद नहीं रहेगा। क्योंकि अन्य अर्थ की कल्पना करना दोनों में एकसी है। कोई विशेषता नहीं