________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 266 न चेदं वाक्छलं युक्तं किंचित्साधर्म्यमात्रतः। स्वरूपभेदसंसिद्धेरन्यथातिप्रसंगतः // 305 // कल्पनार्थांतरस्योक्ता वाक्छलस्य हि लक्षणं / सद्भूतार्थनिषेधस्तूपचारछललक्षणम् // 306 // अत्राभिधानस्य धर्मो यथार्थे प्रयोगस्तस्याध्यारोपो विकल्पः अन्यत्र दृष्टस्यान्यत्र प्रयोगः, मंचा: क्रोशंति गायतीत्यादौ शब्दप्रयोगवत् / स्थानेषु हि मंचेषु स्थानिनां पुरुषाणां धर्ममाक्रोष्टित्वादिकं समारोप्य अर्थ तो मचान है और गौण अर्थ मंच पर बैठे हुए मनुष्य हैं। वहाँ वादी द्वारा प्रसिद्ध हो रहे गौण अर्थ को कहने वाला मंच शब्द का मंचस्थ अर्थ में प्रयोग किये जाने पर वहाँ शब्द के मुख्य अर्थ का प्रतिषेध कर देना नैयायिकों के यहाँ उपचार छल व्यवस्थित किया गया है॥३०२-३०३-३०४॥ यह तीसरा उपचारछल केवल कुछ थोड़ा सा समान धर्मापन मिल जाने से पहिले वाक्छल में गर्भित कर लेना चाहिए। यह किसी का कथन युक्तिसहित नहीं है, क्योंकि उनके लक्षण भेद प्रतिपादक भिन्नभिन्न स्वरूपों की सिद्धि है। अन्यथा (स्वरूप भेद होने पर भी उससे पृथक् नहीं मानोगे तो) अतिप्रसंग दोष आता है अर्थात् तीनों छल एक हो जाते हैं। वक्ता के अभिप्राय से भिन्न अर्थ की कल्पना करना वाक्छल का लक्षण है और विद्यमान सद्भूत अर्थ का निषेध कर देना उपचार छल का। अत: ये दोनों पृथक्-पृथक् हैं // 305-306 // ___ भावार्थ - नैयायिकों ने शक्ति और लक्षणा यों शब्दों की दो वृत्तियाँ मानी हैं। शब्द की वाचक शक्ति से जो अर्थ निकलता है, वह शक्यार्थ है और तात्पर्य की अनुपपत्ति होने पर शक्यार्थ संबंधी अन्य अर्थ को लक्ष्यार्थ कहते हैं। जैसे कि गंगा का जलप्रवाह अर्थ तो अभिधाशक्ति से प्राप्त होता है और घोष पद का समभिव्यवहार हो जाने पर गंगातीर अर्थ करना लक्षणावृत्ति से निकलता है। जिस शब्द के शक्यार्थ दो हैं, वहाँ एक शक्यार्थ के निर्णय कराने वाले विशेष का अभाव होने से प्रतिवादी द्वारा वादी के अनिष्ट हो रहे शक्यार्थ की कल्पना करके दूषण कथन करना वाक्छल है। जैसे कि नवकंबल का अर्थ नौ संख्या वाले कंबल गढ़ कर प्रत्यवस्थान दिया तथा शक्ति और लक्षणा नामक वृत्तियों में से किसी एक वृत्ति द्वारा शब्द के प्रयोग किये जाने पर पुनः प्रतिवादी द्वारा जो निषेध किया जाना है, वह उपचार छल है। जैसे कि मचान गा रहे हैं। यहाँ वादी को लक्षणा वृत्ति से मंच का अर्थ मंचस्थ पुरुष अभीष्ट है। शक्यार्थ मचान अर्थ अभीष्ट नहीं है। लोक में भी वही अर्थ प्रसिद्ध है। ऐसी दशा में प्रतिवादी द्वारा मचान अर्थ कर निषेध उठाया जाता है। वहाँ अर्थान्तर की कल्पना है और यहाँ अर्थ सद्भाव का प्रतिषेध किया गया है। "वाक्छलमेवोपचारच्छलं तदविशेषात्" इस सूत्र द्वारा पूर्वपक्ष उठाकर “न तदर्थान्तरभावात्" "अविशेषे वा किञ्चित्साधादेकच्छलप्रसङ्गः" - इन दो सूत्रों से उत्तर पक्ष को पुष्ट किया है। न्यायभाष्यकार कहते हैं कि शब्द का धर्म यथार्थ प्रयोग करना है। अर्थात् जैसा अर्थ अभीष्ट हो, उसी के अनुसार शब्द का प्रयोग आवश्यक है। उसका विकल्प करना यानी अन्यत्र देखे गये का दूसरे अन्य स्थानों पर प्रयोग करना - यह आरोप है। उसका निर्देश करने पर अर्थ के सद्भाव का निषेध कर देना उपचार छल है। जैसे कि मचान चिल्ला रहे हैं, गा रहे हैं। इत्यादि प्रकार के श्लेषयुक्त पदों का प्रयोग करने पर भी उपचारछल किया जा सकता है। क्योंकि, यहाँ प्रकरण में अधिकरण या स्थानरूप मचानों में स्थान वाले