________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 205 अत्र परेषामाकूतमुपदर्य विचारयतिपक्षसिद्धिविहीनत्वादेकस्यात्र पराजये। परस्यापि न किं नु स्याज्जयोप्यन्यतरस्य तु // 88 // तथा चैकस्य युगपत्स्यातां जयपराजयौ। पक्षसिद्धीतरात्मत्वात्तयोः सर्वत्र लोकवत् // 89 // तदेकस्य परेणेह निराकरणमेव नः। पराजयो विचारेषु पक्षासिद्धिस्तु सा क्व नुः॥१०॥ पराजयप्रतिष्ठानमपेक्ष्य प्रतियोगिनां / लोके हि दृश्यते यादृक् सिद्धं शास्त्रेपि तादृशम् // 11 // सिद्ध्यभावः पुनर्दृष्टः सत्यपि प्रतियोगिनि। साधनाभावतः शून्ये सत्यपि च स जातुचित् // 12 // तन्निराकृतिसामर्थ्यशून्ये वादमकुर्वति। पराजयस्ततस्तस्य प्राप्त इत्यपरे विदुः॥१३॥ इस प्रकरण में जैनाचार्य दूसरों के अभिप्राय को दिखाकर विचार करते हैं, अर्थात् छह कारिकाओं के द्वारा दूसरे विद्वानों के मन्तव्य को कहते हैं - पक्ष की सिद्धि से रहित होने के कारण एक की पराजय होने पर दूसरे (वादी) की पराजय क्यों नहीं होती है? क्योंकि साधनाभास को कहने वाला वादी और दोषों को उद्भावन नहीं करने वाला प्रतिवादी दोनों ही स्वकीय पक्ष की सिद्धि करने वाले नहीं हैं। अत: वादी की जय मानने पर प्रतिवादी की जय भी माननी पड़ेगी। तथा ऐसा होने पर वादी या प्रतिवादी की जय और पराजय दोनों एक साथ हो जायेगी। क्योंकि जैसे लोक में जय और पराजय की व्यवस्था प्रसिद्ध है, उसी प्रकार शास्त्रार्थ में भी स्वपक्ष की सिद्धि कर देने पर वादी की विजय और स्वरूप की सिद्धि नहीं होने पर पराजय होना प्रसिद्ध है अर्थात् जय और पराजय पक्षसिद्धि और पक्ष की असिद्धि स्वरूप ही है।८८-८९॥ इसलिए दूसरे विद्वानों के द्वारा एक वादी या प्रतिवादी का निराकरण हो जाना ही हमारे विचारों में पराजय मानी गई है। ऐसी अवस्था में किसी एक मुनष्य के वह पक्ष की असिद्धि कहाँ रह सकती है? जैसे लोक में प्रतियोगी (प्रतिकूल) पुरुषों की अपेक्षा करके पराजय की प्रतिष्ठा देखी जाती है। अपने पक्ष के प्रतिकूल बोलने वाले पुरुष की लौकिक विवाद में पराजय हो जाती है। उसी प्रकार शास्त्रीय विवाद में भी स्वकीय पक्ष के प्रतिकूल बोलने वालों की पराजय देखी जाती है।।९०-९१॥ "प्रतियोगी मानव के होने पर भी पुन: समीचीन हेतु का अभाव होने से पक्षसिद्धि का अभाव देखा जाता है। तथा कभी-कभी प्रतियोगी का अभाव होने पर सिद्धि का अभाव देखा जाता है। इसलिए यह सिद्ध होता है कि उस प्रतियोगी के निराकरण करने के सामर्थ्य से शून्य होने से वाद को नहीं करने वाले मानव के होने पर उसकी पराजय हो जाती है अर्थात् दूसरे को वाद के सामर्थ्य से शून्य कर दिया जाए, अथवा वह मानव वाद करने के योग्य नहीं रहता है- वही वादी की पराजय है। ऐसा कोई विद्वान् कहते हैं।९२९३॥ जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकरण में इस प्रकार कहने वाले विद्वानों के अभिमतों पर विचार किया जा रहा है। सर्व प्रथम आचार्य कहते हैं कि निराकरण का अर्थ क्या है? वादी या प्रतिवादी को किसी भी प्रकार से चुप कर देना मात्र उसका निराकरण है? अथवा - समीचीन वचन वाले (वाग्मी) के द्वारा अभीष्ट पक्ष में (तत्त्व में) दूषण देना निराकरण है?