Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 259
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 246 ततोऽननुभाषणं सर्वस्य दूषणविषयमात्रस्य वान्यदेवाप्रतिभाया: केवलं तन्निग्रहस्थानमयुक्तं, परोक्तिमप्रत्युच्चारयतोपि दूषणवचनन्याय्यात्। तद्यथा-सर्वं प्रतिक्षणविनश्वरं सत्त्वादिति केनचिदुक्ते तदुक्ते प्रत्युच्चारयन्नेव परो विरुद्धत्वं हेतोरुद्भावयति, सर्वमनेकांतात्मकं सत्त्वात् / क्षणक्षयाद्येकांते सर्वथार्थक्रियाविरोधात् सत्त्वानुपपत्तेरिति समर्थयते च तावता परोपन्यस्तहेतोर्दूषणात् किं प्रत्युच्चारणेन। अथैवं दूषयितुमसमर्थः शास्त्रार्थज्ञानपरिणतिविशेषरहितत्वात् तदायमुत्तराप्रतिपत्तेरेव तिरस्क्रियते न पुनरप्रत्युच्चारणात्। सर्वस्य पक्षधर्मत्वादेर्वानुवादे पुनरुक्तत्वानिष्टेः प्रत्युच्चारणोपि तत्रोत्तरमप्रकाशयन् न हि न निगृह्यते स्वपक्षं साधयता, यतोऽप्रतिभैव निग्रहस्थानं न स्यात् / यदप्युक्तं, अविज्ञातं चाज्ञानमिति निग्रहस्थानं, तदपि न प्रतिविशिष्टमित्याहका अननुभाषण निग्रह स्थान है। वह अप्रतिभा निग्रहस्थान से भिन्न है। धर्मकीर्ति के द्वारा दोनों निग्रहस्थानों को एक कहना उचित नहीं है। अत: अननुभाषण को निग्रह स्थान मानना युक्त नहीं है। क्योंकि दूसरे विद्वानों के द्वारा कथित वाक्यों का प्रत्युच्चारण नहीं करने वाले प्रतिवादी के द्वारा दूषण वचन कहा जाना न्यायमार्ग है। जैसे “सर्व पदार्थ क्षणिक हैं सत्त्व होने से'। इस प्रकार किसी के द्वारा कहने पर उसके प्रतिकूल वाक्यों का उच्चारण नहीं करता हुआ भी दूसरा विरुद्ध हेत्वाभास का उत्थापन कर सकता है कि सभी पदार्थ नित्य अनित्य आदि अनेक धर्मात्मक हैं सत्त्व होने से क्योंकि एक क्षण में सर्वथा नष्ट होने वाले पदार्थों में अर्थक्रिया का विरोध है। अत: उनमें सत्त्वपना नहीं रह सकता। इस प्रकार प्रतिवादी ने सत्त्व हेतु के विपक्ष में बाधक प्रमाण का कथन करके समर्थन भी कर दिया है। इतना कहने मात्र से वादी के द्वारा कथित हेतु दूषित हो जाता है। पुनः प्रत्युच्चारण करने से क्या लाभ है? इसलिए जिसके बिना अपने अभीष्ट साध्य की सिद्धि नहीं होती है, उसका प्रत्युच्चारण नहीं करना ही अननुभाषण नामक निग्रहस्थान है। इस प्रकार शास्त्रार्थ ज्ञान परिणति विशेष से रहित होने से यदि प्रतिवादी हेतु को दूषित करने के लिए असमर्थ है, तब तो यह प्रतिवादी उत्तर की अप्रतिपत्ति (अज्ञान) रूप अप्रतिभा के द्वारा ही तिरस्कार (निग्रह) करने योग्य है। परन्तु अप्रत्युच्चारण (अननुभाषण) से प्रतिवादी का निग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि सभी वादियों ने पक्षधर्मत्व आदि का कथन नहीं करना ही अननुभाषण माना है। अनुवाद में पुनरुक्त दोष किसी को भी इष्ट नहीं है। यदि प्रत्युच्चारण करने वाला भी वादी साध्यसिद्धि में समीचीन उत्तर का प्रकाशन नहीं कर रहा है (समीचीन उत्तर नहीं दे रहा है) तो वह निग्रह स्थान को प्राप्त नहीं हुआ, ऐसा नहीं है। किन्तु स्वकीय पक्ष को सिद्ध करने वाले वादी के द्वारा वह निग्रहस्थान को प्राप्त हो जाता है जिससे उसके अप्रतिभा निग्रहस्थान नहीं हो अर्थात् अप्रतिभा और अननुभाषण ये स्वतंत्र निग्रहस्थान नहीं हैं। वादी के कथन का सभासदों को ज्ञान हो जाने पर भी यदि प्रतिवादी उसको समझ नहीं सका है तो वह “अविज्ञात अज्ञान नामक" निग्रहस्थान है। ऐसा नैयायिक ने जो अविज्ञात नामक निग्रहस्थान का लक्षण किया था, वह निग्रहस्थान किसी विशेषता को रखने वाला नहीं है, किसी विशेष अर्थ का वाचक नहीं है। इसी बात को जैनाचार्य विद्यानन्द स्वामी कहते हैं -

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