________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 250 तस्करत्वं नरत्वादेरिति हेतुर्यदोच्यते। तदानैकांतिकत्वोक्तित्वमपीति न वार्यते // 261 // वाचोयुक्तिप्रकाराणां लोकेवैचित्र्यदर्शनात् / नोपालंभस्तथोक्तौ स्याद्विपक्षे हेतुदर्शनम् // 262 // दोषहेतुमभिगम्य स्वपक्षे परपक्षताम् / दोषमुद्भाव्य पश्चात्त्वे स्वपक्षं साधयेजयी // 263 // यदप्यभिहितमनिग्रहस्थाने निग्रहस्थानानुयोगो निरनुयोज्यानुयोगो निग्रहस्थानमिति तदप्यसदित्याहयदा त्वनिग्रहस्थाने निग्रहस्थानमुच्यते। तदा निरनुयोज्यानुयोगाख्यो निग्रहो मतः // 264 // सोप्यप्रतिभयोक्तः स्यादेवमुत्तरविकृतेः। तत्प्रकारपृथग्भावे किमेतैः स्वल्पभाषितैः // 265 // स्वपक्ष को सिद्ध करके अन्य वक्ता का निग्रह कर विजय प्राप्त करने वाला कहा जाता है। संक्षेप से यह सिद्धान्त निर्दोष व्यवस्थित है कि प्रमाण द्वारा स्वपक्ष को सिद्ध करके ही वादी या प्रतिवादी दूसरे वक्ता का निग्रह कर सकता है, अन्यथा (अपने पक्ष की सिद्धि किये बिना) दूसरे का निग्रह करने का अयोग है अर्थात् स्वपक्ष की सिद्धि बिना दूसरे का निग्रह नहीं कर सकता // 259-260 // यह तस्कर (चोर) है मनुष्यत्व होने से, भोजन करने वाला होने से, इत्यादि हेतुओं से तस्करपना सिद्ध किया है अर्थात् यह चोर है मनुष्य होने से, इत्यादि हेतु जब कहे जाते हैं, तो यह हेतु अनैकान्तिक है। इसमें अनैकान्तिक हेत्वाभास की उक्ति का निराकरण नहीं कर सकते। अर्थात् “यह चोर है पुरुष होने से, प्रसिद्ध डाकू के समान'' ऐसा कहने पर तू भी तस्कर है, क्योंकि तू भी पुरुष है। इस प्रकार अनैकान्तिक दोषों के उत्थान का प्रवाह रोका नहीं जा सकता। क्योंकि जगत् में वचनों की युक्तियों के प्रकारों का विचित्रपना देखा जाता है। अर्थात् कहीं निषेधमुख से कार्य के विधान की प्रेरणा की जाती है और कहीं विधि मुख से निषेध किया जाता है। इस प्रकरण में वचनभंगी द्वारा विपक्ष में हेतु को दिखलाते हुए अनैकान्तिक को कहने पर कोई उलाहना (दोष) नहीं है। क्योंकि स्वकीय पक्ष में हेतु के दोषों को समझ कर पुनः परपक्ष दोषों को उठाकर (पश्चात्) यदि वादी स्वकीय पक्ष को सिद्ध कर देता है तो वह विजय को प्राप्त हो जाता है, अन्यथा विजय की संभावना नहीं है। (ऐसा मतानुज्ञा नामक निग्रहस्थान में युक्त नहीं है)॥२६१-२६२-२६३॥ ___ जो अनिग्रह स्थान में निग्रहस्थान का अनुयोग करना “निरनुयोज्यानुयोग' नामक निग्रहस्थान कहा है, वह भी “असत्' असत्य है (समीचीन नहीं है)। इसको आचार्य कहते हैं - जिस समय अनिग्रह स्थान में निग्रहस्थान कहा जाता है, उस समय निरनुयोज्यानुयोग नामक निग्रह स्थान माना गया है। जैनाचार्य कहते हैं कि नैयायिकों का निग्रहस्थान भी अप्रतिभा के रूप से कहा गया है। उत्तर देने में विकार हो जाना भी एक प्रकार का निग्रहस्थान ही है। यदि उन अप्रतिभा या अज्ञान के भेद प्रभेद रूप प्रकारों का पृथक्-पृथक् निग्रहस्थान का सद्भाव माना जायेगा तो चौबीस रूप अल्प संख्या से क्या हो सकता है? अपितु असंख्यात निग्रहस्थान मानने पड़ेंगे॥२६४-२६५॥