________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 245 तदेव स्यात्तदा तस्य पुनरुक्तमसंशयम् / नोच्चार्यते यदा त्वेतत्तदा दोषः क्व गद्यते // 237 // तस्माद्यद्देष्यते यत्तत्कर्मत्वादि परोदितम् / तदुच्चारणमेवेष्टमन्योच्चारो निरर्थकः // 238 // उक्तं दूषयतावश्यं दर्शनीयोत्र गोचरः। अन्यथा दूषणावृत्तेः सर्वोच्चारस्तु नेत्यपि // 239 // कस्यचिद्वचनं नेष्टनिग्रहस्थानसाधनं / तस्याप्रतिभयैवोक्तैरुत्तराप्रतिपत्तितः॥२४०॥ तदेतद्धर्मकीर्तेर्मतमयुक्तमित्याहप्रत्युच्चारासमर्थत्वं कथ्यतेऽननुभाषणं / तस्मिन्नुच्चारितेप्यन्यपक्षविक्षिप्त्यवेदनम् // 241 // ख्याप्यतेऽप्रतिभान्यस्येत्येतयोर्नेकतास्थितिः। साक्षात्संलक्ष्यते लोकै: कीर्तेरन्यत्र दुर्गतेः // 242 // प्रथम तो प्रतिवादी को वादी के द्वारा कथित सम्पूर्ण अर्थ का तात्त्विक रूप से शीघ्र उपन्यास करना पड़ता है। पुनः प्रत्येक वाक्य में दूषण कथन करने पर प्रतिवादी के द्वारा उच्चारण किया जाता है तो उस प्रतिवादी का वह कथन ही नि:संशय पुनरुक्त निग्रहस्थान हो जाता है और यदि वादी के द्वारा कथित वाक्यों का प्रतिवादी उच्चारण नहीं करता है तो नैयायिक मतानुसार अननुभाषण नामक निग्रहस्थान को प्राप्त होता हैं। अतः प्रतिवादी को कौनसा दोष कहना चाहिए? इसलिए वादी के सर्व कथन का उच्चारण करना उपयुक्त नहीं है अपितु पर (वादी) के द्वारा कथित जिस-जिस साध्य हेतु आदि में प्रतिवादी द्वारा दूषण दिया जा सकता है, उसका उच्चारण करना ही प्रतिवादी का कर्त्तव्य है, इष्ट है। यदि प्रतिवादी अन्य (निष्प्रयोजन) वाक्यों का उच्चारण करेगा, तो निरर्थक नामक निग्रहस्थान को प्राप्त होगा // 237-238 // उपर्युक्त अननुभाषण दूषण का कथन करने वाले विद्वानों को यहाँ दूषण के आधार साध्य, हेतु आदि विषय अवश्य दिखलाने चाहिए। अन्यथा दूषणों की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। वादी के द्वारा प्रतिपादित सर्ववाक्यों का उच्चारण करने की आवश्यकता नहीं है। . इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि यह भी किसी (धर्मकीर्ति) का कथन स्वकीय अभीष्ट निग्रहस्थान का साधक नहीं हो सकता। क्योंकि प्रतिवादी को स्वकीय वचन के द्वारा उत्तर देने का ज्ञान न होने के कारण अप्रतिभा नामक निग्रहस्थान के द्वारा प्रतिवादी का निग्रह (पराजय) कर दिया जाता है॥२३९२४०॥ इसलिए धर्मकीति (बौद्ध अनुयायी) का कथन अयुक्त है। विद्यानन्द आचार्य कहते हैं - . प्रत्युत्तर का उच्चारण करने में असमर्थ प्रतिवादी का अननुभाषण नामक निग्रहस्थान कहा जाता है और प्रत्युत्तर के उच्चारण में परपक्ष के द्वारा दिये गये विक्षेप (प्रतिषेध) का ज्ञान नहीं होना अन्य (प्रतिवादी) का अप्रतिभा नामक निग्रहस्थान कहा जाता है- इसलिए इन अननुभाषण और अप्रतिभा में एकता की स्थिति नहीं है अर्थात् ये दोनों एक नहीं हैं। वा, उत्तर नहीं देना या उत्तर देने से सभा का क्षोभित हो जाना अननुभाषण निग्रह स्थान है, और उत्तर को नहीं समझाना अप्रतिभा नामक निग्रह स्थान है। दुर्गति वा दुर्मति के कारण धर्मकीर्ति को छोड़कर सर्व लौकिक जनों के द्वारा अप्रतिभा और अननुभाषण में भेद दृष्टिगोचर हो रहा है॥२४१-२४२ // इसलिए दूषण के विषय मात्र हेतु आदि सर्व अवयवों का उच्चारण नहीं करना प्रतिवादी