________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 243 सभ्यप्रत्यायनं यावत्तावद्वाच्यमतो बुधैः / स्वेष्टार्थवाचिभिःशब्दस्तैश्चान्यैर्वा निराकुलम् // 230 // तदप्रत्यायि शब्दस्य वचनं तु निरर्थकम् / सकृदुक्तं पुनर्वेति तात्त्विकाः संप्रचक्षते // 231 // सकृद्वादे पुनर्वादोनुवादोर्थविशेषतः / पुनरुक्तं यथा नेष्टं क्वचित्तद्वदिहापि तत् // 232 // अर्थादापद्यमानस्य यच्छब्देन पुनर्वचः। पुनरुक्तं मतं यस्य तस्य स्वेष्टोक्तिबाधनम् // 233 // योप्याह, शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तमन्यत्रानुवादात् अर्थादापन्नस्य स्वशब्देन पुनर्वचनं पुनरुक्तमिति च तस्य प्रतिपन्नार्थप्रतिपादकत्वेन वैयर्थ्यान्निग्रहस्थानमिति मतं न पुनरन्यथा / तथा च निरर्थकान विशिष्यते, विभक्ति वाले हैं जिसका अर्थ है "हँसने पर, रोने पर इत्यादि। द्वितीय पद में स्थित हसति रोदिति” इत्यादि तिङन्त शब्द लट् लकार के क्रिया रूप है। इस प्रकार श्लोकों के शब्दों में समानता होने पर भी अर्थभेद होने के कारण पुनरुक्त दोष नहीं है। शब्द के समान या भिन्न होने पर भी यदि अर्थभेद नहीं है तो पुनरुक्त दोष आता है।॥२२८-२२९॥ ___ विद्वानों को उतने (ही) शब्द बोलने चाहिए जितने से सभासद पुरुषों का व्युत्पादन हो सकता है (उनकी बुद्धि का विकास होता है)। अपने अभीष्ट अर्थ को कहने वाले उन शब्दों के द्वारा वा अन्य शब्दों के द्वारा निराकुल होकर भाषण करना उपयोगी है। . अर्थात् - अर्थ के समझने और समझाने में आकुलता न हो, उस प्रकार से शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। सभासदों को ज्ञान नहीं कराने वाले शब्दों का प्रयोग करना तो निरर्थक है। व्यर्थ कथन पुन:पुनः करना वा एक बार कहना ये सब निग्रहस्थान में अन्तर्भूत हैं। ऐसा तत्त्ववेत्ता निरूपण करते हैं अर्थात् निष्प्रयोजन वचनों का एक बार भी उच्चारण नहीं करना चाहिए / / 230-231 // जिस प्रकार एक बार वाद कथा कह चुकने पर प्रयोजन की विशेषता होने से पुनः कथन करना रूप अनुवाद कहीं पुनरुक्त दोष से युक्त नहीं कहा जाता है, उसी प्रकार अर्थ की विशेषता होने पर एक से शब्दों का बार-बार उच्चारण करना पुनरुक्त दोष से युक्त नहीं है।।२३२॥ . - जिस नैयायिक के सिद्धान्त में अर्थप्रकरण से गम्यमान अर्थ का पुनः शब्दों के द्वारा कथन करना पुनरुक्त (माना गया) है, जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहने वाले उन नैयायिकों के अपने अभीष्ट कथन से ही बाधा उपस्थित हो जाती है अर्थात् नैयायिक का कथन स्ववचन बाधित है।।२३३॥ नैयायिक ने जो कहा था कि “अनुवाद करने से अतिरिक्त स्थलों पर शब्द और अर्थ का पुन: कथन करना पुनरुक्त निग्रहस्थान है तथा अर्थापत्ति द्वारा गम्यमान प्रमेय (अर्थ) का स्वकीय पर्यायवाचक शब्दों से पुनः कथन करना भी पुनरुक्त है।" इस सूत्र के अनुयायी नैयायिकों के यहाँ जाने हुए ही अर्थ का प्रतिपादक होने से व्यर्थ हो जाने के कारण पुनरुक्त नामक निग्रहस्थान माना है। उन्होंने पुन: अन्य प्रकार से निग्रहस्थान स्वीकृत नहीं किया है। तथा इस प्रकार कहने पर पुनरुक्त निग्रहस्थान और निरर्थक निग्रह स्थान में कोई विशेषता नहीं रहती है और नैयायिकों के सिद्धान्त में स्ववचन विरोध आता है अर्थात् उनका कथन अपने वचनों से बाधित हो जाता है। क्योंकि स्वकीय ग्रन्थों में स्वयं नैयायिक ने उद्देश, लक्षणनिर्देश