________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 241 प्रवृत्तौ संवादसिद्धिश्चेति मतिस्तदा हेतुना दृष्टांतेन वा केनचिद्ज्ञापितेर्थे द्वितीयस्य हेतोदृष्टांतस्य वा वचनं कथमनर्थकं तस्य तथाविधदायत्वात्। न चैवमनवस्था, कस्यचित्क्वचिनिराकांक्षतोपपत्तेः प्रमाणांतरवत्। कथं कृतकत्वादिति हेतुः क्वचिद्वदतः स्वार्थिकस्य कप्रत्ययस्य वचनं यत्कृतकं तदनित्यं दृष्टमिति व्याप्ति प्रदर्शयतो यत्तद्वचनमधिकं नाम निग्रहस्थानं न स्यात्, तेन विनापि तदर्थप्रतिपत्तेः। सर्वत्र वृत्तिपदप्रयोगादेव चार्थप्रतिपत्तौ संभाव्यमानायां वाक्यस्य वचनं कमर्थं पुष्णाति ? येनाधिकं न स्यात्। तथाविधवचनस्यापि हेतु और दृष्टान्त के द्वारा अर्थ की ज्ञप्ति हो जाने पर पुनः दूसरे हेतु अथवा दूसरे दृष्टान्त का कथन करना व्यर्थ कैसे हो सकता है? क्योंकि उस दूसरी, तीसरी बार कथित हेतु या दृष्टान्तों के भी उस प्रकार की दृढ़ प्रतीति करा देना घटित हो जाता है अर्थात् जैसे बहुत से उपायों से अर्थ की प्रतिपत्ति में दृढ़ता आ जाती है, उसी प्रकार अनेक हेतुओं और दृष्टान्तों से पूर्व ज्ञान के संवादों की सिद्धि हो जाती है। अनेक हेतुओं और दृष्टान्तों के प्रयोग से अनवस्था दोष आता है, ऐसा भी नहीं कहना चाहिए क्योंकि किसी के कहीं पर निराकांक्षा की उत्पत्ति हो जाती है अर्थात् स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, अनुमान आदि के द्वारा वस्तु का स्वरूप समझ में आ जाने पर जानने की जिज्ञासा शांत हो जाती है। जैसे प्रमाणान्तर का प्रयोग करने पर कहीं पर जिज्ञासा शांत हो जाती है। अत: अधिक हेतु और दृष्टान्तों का प्रयोग करने पर अनवस्था दोष नहीं आता है। इसलिए अधिक को निग्रहस्थान मानना उचित प्रतीत नहीं होता है। ___ यदि अधिक कथन करने को वक्ता का निग्रहस्थान माना जायेगा तो किसी स्थल पर "शब्दोऽनित्य:कृतकत्वात्' - इस अनुमान में कृतत्वात् के स्थान पर स्वार्थ वाचक प्रत्यय को बढ़ाकर “कृतकत्वात्'-इस प्रकार के हेतु को कहने वाले वादी के द्वारा कृतं के निज अर्थ को कहने वाले स्वार्थिक "क' प्रत्यय का कथन करना वादी का अधिकनिग्रहस्थान क्यों नहीं माना जायेगा? तथा उक्त अनुमान में जो-जो कृतक होता है, वह-वह पदार्थ अनित्य देखा गया है, इस प्रकार व्याप्ति को दिखाने वाले वादी के द्वारा यत्-यत् और तत्-तत् शब्द का कथन करना (प्रयोग करना) अधिक नामक निग्रहस्थान क्यों नहीं होगा? क्योंकि यत्-यत् (जो-जो) तत्-तत् (वह-वह) - इन शब्दों के प्रयोग के बिना भी व्याप्ति के अर्थ की प्रतिपत्ति हो जाती है। अर्थात् - “कृतकत्व पदार्थ अनित्य होता है" इतना कहने मात्र से ही व्याप्ति का ज्ञान हो जाता है। सर्वत्र कृदन्त, तद्धित, समास आदि वृत्तियों से युक्त पदों के प्रयोग से ही अर्थ की प्रतिपत्ति (ज्ञान) होना संभव होने पर खण्ड रूप से वाक्य का वचन किस अर्थ को पुष्ट कर रहा है जिससे कि अधिक निग्रहस्थान नहीं हो सकते। अर्थात् “इत्वरी'' इस लघुकृदन्त पद से ज्ञान हो सकता है तो फिर पर-पुरुषगमन का स्वभाव रखने वाली व्यभिचारिणी के लिए यह अधिक वाक्य क्यों बोला जाता है? 'ईर्या समिति' कहने से ज्ञान हो सकता है, तो फिर चार हाथ जमीन देकर चलना, ऐसा क्यों कहा जाता है? अतः ऐसा कहने वाला वक्ता अधिक निग्रहस्थान को प्राप्त होगा। - यदि कहो कि कृदन्त, तद्धित आदि शब्दों का विस्तारपूर्वक कथन करना प्रतिपत्ति (ज्ञान) का उपाय