________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 238 साधनवाक्यमुपपन्नं साधर्म्यवैधर्योदाहरणविरहेपि हेतोर्गमकत्वसमर्थनात्। तत एवोपनयनिगमनहीनमपि वाक्यं च साधनं प्रतिज्ञाहीनवत् विदुषः प्रति हेतोरेव केवलस्य प्रयोगाभ्युपगमात् / धूमोत्र दृश्यते इत्युक्तेपि कस्यचिदग्निप्रतिपत्तेः प्रवृत्तिदर्शनात् / सामर्थ्याद्गम्यमानास्तत्र प्रतिज्ञादयोपि संतीति चेत्, तर्हि प्रयुज्यमाना न संतीति तैर्विनापि साध्यसिद्धेः न तेषां वचनं साधनं साध्याविनाभाविसाधनमंतरेण साध्यसिद्धरसंभवात् / तद्वचनमेव साधनमतस्तन्यूनं न निग्रहस्थानं परस्य स्वपक्षसिद्धौ सत्यामित्येतदेव श्रेयः प्रतिपद्यामहे / प्रतिज्ञादिवचनं तु प्रतिपाद्याशयानुरोधेन प्रयुज्यमानं न निर्वायते तत एवासिद्धो हेतुरित्यादिप्रतिज्ञावचनं हेतुदूषणोद्भावनकाले कस्यचिन्न विरुध्यते तदवचननियमानभ्युपगमात्। तर्हि यथाविधान्यूनादर्थस्यापि सिद्धिस्तथाविधं तन्निग्रहस्थानमित्यपि न घटत इत्याह सिद्ध करता है, क्योंकि क्वचित् (कहीं पर) प्रतिज्ञा वाक्य के बिना भी चार अवयव वाले साधन वाक्य के द्वारा (भी) अनुमान वाक्य की उत्पत्ति हो जाने से गम्यमान (साध्यस्वरूप) कर्म की सिद्धि हो जाती है अर्थात् प्रतिज्ञावाक्य कहने की कोई आवश्यकता नहीं है। तथा उदाहरण हीन (रहित) साधन वाक्य भी उपपन्न है, क्योंकि हेतु और साध्य के साथ साधर्म्य धारक अन्वय दृष्टान्त और हेतु एवं साध्य के साथ वैधर्म्य धारक व्यतिरेक दृष्टान्त के बिना भी हेतु के गमकत्व का समर्थन किया गया है अर्थात् - उदाहरण रहित भी हेत साध्य का गमक हो सकता है। उसी प्रकार उपनय और निगमन से रहित वाक्य भी अनुमान (परार्थानुमान) का साधन हो जाता है। जैसे प्रतिज्ञाहीन वाक्य से साध्य की सिद्धि हो जाती है क्योंकि विद्वानों के प्रति केवल हेतु का प्रयोग करना स्वीकार किया गया है। जैसे यहाँ पर धुआँ दीख रहा है- इतना कहने पर भी किसी विद्वान् को अग्नि की. प्रतिपत्ति हो जाती है। ऐसी प्रवृत्ति देखी जाती है। यदि कहो कि प्रतिज्ञादि से शून्य अनुमान में प्रतिज्ञादि भी गम्यमान होने से विद्यमान हैं अतः पाँचों अवयवों से साध्य का साधन हुआ, न्यून से नहीं, ऐसा कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि प्रतिज्ञा आदि का यद्यपि कंठोक्त प्रयोग नहीं है, तथापि उनके बिना साध्य की (कंठोक्त उच्चारण किये बिना भी) सिद्धि हो जाती है। क्योंकि उन प्रतिज्ञा आदि का उच्चारण करना साध्य की सिद्धि में प्रयोजक नहीं है। साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाले साधन के बिना साध्य की सिद्धि होना असंभव है। इसलिए ज्ञापक हेतु का प्रयोग करना ही अनुमान का प्रधान साधन है। अत: प्रतिज्ञा आदि से न्यून वाक्य निग्रहस्थान का कारण नहीं है। केवल दूसरे के स्वपक्ष की सिद्धि हो जाने पर वादी का निग्रहस्थान हो जाता है। अतः मैं इस सिद्धान्त को ही श्रेष्ठ मानता हूँ और उसी को मैं प्राप्त होता हूँ। शिष्य के अनुरोध से प्रतिज्ञादि वचन का प्रयोग करने का निवारण नहीं किया जा सकता। इसलिए हेतु के दूषणों के उद्भावन के अवसर में किसी एक विद्वान् का हेतु असिद्ध ही है। यह हेतु विरुद्ध है, इत्यादिक प्रतिज्ञा वाक्य का कथन करना विरुद्ध नहीं है। अर्थात् - धर्म और धर्मी का समुदाय रूप प्रतिज्ञा वाक्य बन जाता है। इसलिए, सभी विद्वानों के प्रति उन पाँचों अवयवों के प्रयोग करने का नियम नहीं है। नैयायिक कहते हैं कि (यदि) जिस प्रकार न्यून कथन से अभिप्रेत अर्थ की सिद्धि नहीं होती है, उसी प्रकार निग्रहस्थान न्यून कथन में घटित नहीं होता है। जैनाचार्य कहते हैं -