________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 237 न च हेत्वादिदोषा: संतीति निग्रहं चाभ्युपैति। तस्मात्प्रतिज्ञान्यूनमेवेति। अथ न निग्रहः न्यूनं वाक्यमर्थं साधयतीति साधनाभावे सिद्धिरभ्युपगता भवति। यच्च ब्रवीषि सिद्धांतपरिग्रह एव प्रतिज्ञेति, तदपि न बुद्ध्यामहे / कर्मण उपादानं हि प्रतिज्ञासामान्यं विशेषतोवधारितस्य वस्तुनः परिग्रहः सिद्धांत इति कथमनयोरैक्यं, यतः प्रतिज्ञासाधनविषयतया साधनांगं न स्यादित्युद्योतकरस्याकूतं, तदेतदपि न समीचीनमिति दर्शयति हीनमन्यतमेनापि वाक्यं स्वावयवेन यन् / तन्यूनमित्यसत्स्वार्थे प्रतीतेस्तादृशादपि // 222 // यावदवयवं वाक्यं साध्यं साधयति तावदवयवमेव साधनं न च पंचावयवमेव साध्यं साधयति क्वचित्प्रतिज्ञामंतरेणापि साधनवाक्यस्योत्पत्तेर्गम्यमानस्य कर्मणः साधनात् / तथोदाहरणहीनमपि कोई (नैयायिक) फिर भी कहते हैं कि प्रतिज्ञान्यून नामक निग्रहस्थान नहीं है। उनके प्रति प्रश्न उठता है कि जो विद्वान् प्रतिज्ञान्यून निग्रहस्थान को मानता है (कहता है) वह निग्रहस्थान को प्राप्त होता है कि नहीं? यदि वह निग्रहस्थान को प्राप्त होता है, तो प्रतिज्ञान्यून वाक्य अनिग्रहस्थान कैसे हो सकता है अर्थात् प्रतिज्ञा से न्यून कहना अवश्य वादी का निग्रह स्थान है। प्रतिज्ञा से न्यून वाक्य में हेतु उदाहरण आदि नहीं है ऐसा भी नहीं कह सकते। क्योंकि उस वाक्य में हेतु आदि प्रतीत होते हैं। इस अनुमान वाक्य में हेतु (हेत्वाभास) आदि दोष पाये जाते हैं। इसलिए वादी निग्रह को प्राप्त हो जाता है। इसलिए प्रतिज्ञान्यून ही निग्रहस्थान मानना चाहिए। यदि प्रतिज्ञान्यून वाक्य के द्वारा वादी का निग्रह नहीं माना जाता है, तो न्यून वाक्य भी अर्थ की सिद्धि कर देता है। इसलिए साधन के अभाव में भी साध्य की सिद्धि स्वीकार करनी पड़ेगी, जो न्याय नियम के विरुद्ध है। अर्थात् वाचक शब्दों के बिना वाच्य अर्थ की और साधन वाक्य के बिना साध्य अर्थ की सिद्धि किसी भी प्रकार से नहीं हो सकती है। और जो तुम (बौद्ध) कहते हो कि "स्वकीय सिद्धान्त कहने का परिग्रह करना ही प्रतिज्ञा है। अत: उसको पुन:पुनः कहने की क्या आवश्यकता है? यह तुम्हारा कथन हम समझ नहीं पा रहे हैं क्योंकि सिद्धान्त का परिग्रह करना प्रतिज्ञा कैसे हो सकती है? साधने योग्य कर्म का ग्रहण करना तो नियम से प्रतिज्ञा (सामान्य) है और विशेष रूप से निर्णीत वस्तु को ग्रहण करना सिद्धान्त है। अत: इन दोनों (कर्म और सिद्धान्त में) एकत्व कैसे हो सकता है? जिससे साध्य सिद्धि का उपयोगी विषय होने से प्रतिज्ञावाक्य साध्य को साधने का अंग (कारण) भूत नहीं हो सकता। अर्थात् प्रतिज्ञा साध्यसिद्धि का अंग है। उसको नहीं कहने वाला वादी अवश्य ही पराजय को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार उद्योतकर विद्वान् ने प्रतिज्ञान्यून को निग्रहस्थान सिद्ध करने की चेष्टा की है। .. उद्योतकर की यह चेष्टा प्रशंसनीय नहीं है, उसी को स्वयं वार्त्तिककार दिखाते हैं - “जो वाक्य प्रतिज्ञा आदिक अवयवों में से एक भी स्वकीय अवयव से हीन होता है, वह न्यून निग्रह स्थान है।" ऐसा भी कहना उचित नहीं है क्योंकि इस प्रकार के न्यून वाक्य से भी परिपूर्ण स्वकीय अर्थ में प्रतीति होती है अर्थात् अवयवहीन हेतु से भी अनुमान की सिद्धि हो जाती है॥२२२॥ जितने अवयवों के द्वारा वाक्य प्रकृत साध्य को सिद्ध करता है, उतने ही अवयवों से युक्त वाक्य को साध्य का साधक माना जाता है। ऐसा नियम नहीं है कि पाँच अवयव वाला अनुमान ही साध्य को