________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 235 शब्दाव्याख्यानवैयर्थ्यमेवं चेत्तत्त्ववादिनाम्। नापशब्देष्वपि प्रायो व्याख्यानस्योपलक्षणात् // 218 // यथा च संस्कृताच्छब्दात्सत्याद्धर्मस्तथान्यतः / स्यादसत्यं यदा धर्मः क्व नियमः पुण्यपापयोः // 219 / / वृद्धप्रसिद्धितस्त्वेष व्यवहारः प्रवर्तते। संस्कृतैरिति सर्वापशब्दै षास्वनैरिव // 220 // ततोनिश्चयो येन पदेन क्रमशः स्थितः / तद्व्यतिक्रमणाद्दोषो नैरर्थक्यं न चापरम् // 221 // एतेनैतदपि प्रत्याख्यातं। यदाहोद्योतकरः, “यथा गौरित्यस्य पदस्यार्थे गौणीति प्रयुज्यमानं पदं न वक्त्रादिमतमर्थं प्रतिपादयतीति न शब्दाव्याख्यानं व्यर्थं अनेनापशब्देनासौ गोशब्दमेव प्रतिपद्यते गोशब्दाद्वक्त्रादिमंतमर्थं तथा प्रतिज्ञाद्यवयवविपर्ययेणानुपूर्वी प्रतिपद्यते तयानुपूर्व्यार्थमिति। पूर्वं हि तावत्कर्मोपादीयते लोकेततोधिकरणादि मृत्पिंडचक्रादिवत्। तथा नैवायं समयोपि त्वर्थस्यानुपूर्वी।'' सोयमर्थानुपूर्वीमन्वाचक्षाणो नाम व्याख्येयात् कस्यायं समय इति। तथा शास्त्रे वाक्यार्थसंग्रहार्थमुपादीयते संगृहीतं त्वर्थं वाक्येन प्रतिपादयिता प्रयोगकाले प्रतिज्ञादिकयानुपूर्व्या प्रतिपादयतीति सर्वथानुपूर्वीप्रतिपादना _ नैयायिक कहते हैं कि शब्द आदि से अप शब्द का स्मरण करके अर्थज्ञान कर लेने पर तो तत्त्वों का प्रतिपादन करने वाले विद्वानों को पुनः समीचीन शब्दों के द्वारा व्याख्या करना, अथवा पुनः पुनः कथन स्वरूप अन्वाख्यान (श्लोक का अन्वयार्थ) करना (क्रम से शब्दों के अर्थ को समझाना आदि) व्यर्थ होंगे। अतः क्रम से ही शब्दों की प्रतिपत्ति होती है। इसके प्रत्युत्तर में जैन आचार्य कहते हैं कि ऐसा नहीं कहना चाहिए। क्योंकि अशुद्ध वा अक्रम शब्दों में भी प्रायः करके व्याख्यान (समीचीन अर्थ) का होना देखा जाता है अर्थात जैसे ग्रामीण जनों को म्लेच्छ भाषा में ही समझाया जाता है॥२१८॥ .. जिस प्रकार संस्कारयुक्त सत्य शब्दों से धर्म होता है, वैसे ही अन्य ग्रामीण शब्दों से भी पुण्य होता है। जैसे असत्य संस्कृत शब्दों के उच्चारण से पाप होता है वैसे ही असत्य असभ्य ग्रामीण शब्दों के उच्चारण से पाप होता है। अतः संस्कृत शब्द के उच्चारण से पुण्य और असंस्कृत शब्द के उच्चारण से पाप होता है- यह नियम कहाँ रहा? अर्थात् - शब्द पुण्य, पाप के कारण हैं - यह नियम नहीं है। क्योंकि शब्दों से पुण्य, पाप की व्यवस्था मानने पर अनुष्ठान करना व्यर्थ हो जाता है॥२१९॥ तथा वृद्ध पुरुषों की प्रसिद्धि से यह व्यवहार प्रवृत्त होता है कि देशभाषा के द्वारा जैसा अर्थ का निर्णय होता है उसी प्रकार संस्कृत शब्द और सम्पूर्ण अपभ्रष्ट शब्द के द्वारा भी अर्थ की प्रतिपत्ति होती है।।२२०।। इससे सिद्ध होता है कि जिस पद के द्वारा क्रम से उच्चारण करने पर अर्थ का निश्चय होना व्यवस्थित है, उन पदों का व्यतिक्रमण हो जाने से श्रोताओं को अर्थ का निश्चय नहीं होता है। अत: यह दोष है, परन्तु यह दोष वास्तविक नहीं है, निरर्थक है। इसलिए व्यतिक्रम दोष से भिन्न अप्राप्त काल नामक निग्रह स्थान मानने की आवश्यकता नहीं है॥२२१॥ - जैनाचार्य कहते हैं कि इस कथन से उद्योतकर के इस कथन का भी खण्डन कर दिया है - जो उद्योतकर ने कहा था कि “जैसे गौ - इस संस्कृत पद के अर्थ में यदि गौणी, गाय आदि पदों का प्रयोग कर दिया जाय तो मुख, सींग आदि से सहित (या मुख सींगादिमान) अर्थ का प्रतिपादन नहीं करता है। इसलिए अशुद्ध शब्द का संस्कृत शब्द से व्याख्यान करना व्यर्थ नहीं है। क्योंकि इन अपशब्दों के द्वारा उस गौ.शब्द का ही प्रतिपादन किया जाता है जिससे श्रोता गौ शब्द से वदन (मुख) आदि से युक्त अर्थ को जान लेता है।