________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 233 प्रत्ययार्थः स्वप्रकृत्या तयोः केवलयोरप्रयोगार्हत्वात्। तथा देवदत्तस्तिष्ठतीत्यादिप्रयोगेषु सुबंतपदार्थस्य तिडंतपदेनाभिव्यक्तेः तिङतपदार्थस्य च सुबंतपदेनाभिव्यक्ते:केवलस्याप्रयोगार्हत्वादभिव्यक्तार्थाभावो विभाव्यत एव। पदांतरापेक्षत्वे सार्थकत्वमेवेति तत्प्रकृत्यपेक्षस्य प्रत्ययस्य तदपेक्षस्य च प्रकृत्यादिवत्स्वस्य सार्थकत्वं साधयत्येव सर्वथा विशेषाभावात् / ततो वर्णानां पदानां च संगतार्थानां निरर्थकत्वमिच्छता वाक्यानामप्यसंगतार्थानां निरर्थकत्वमेषितव्यं / तस्य ततः पृथक्त्वेन निगृह्णन् स्थानत्वानिष्टौ वर्णपदनिरर्थकत्वयोरपि तथा निग्रहाधिकरणत्वं मा भूत्। यदप्युक्तं, अवयवविपर्यासं वचनमप्राप्तकालं अवयवानां प्रतिज्ञादीनां विपर्ययेणाभिधानं निग्रहस्थानमिति। तदपि न सुघटमित्याह केवल प्रकृति, पद और प्रत्यय का कथन नहीं होता है। अर्थात्-प्रत्यय के प्रयोग बिना अकेली प्रकृति का उच्चारण नहीं हो सकता। तथा प्रकृति निरपेक्ष पद और प्रत्यय का भी उच्चारण नहीं हो सकता। केवल बालकों को समझाने के लिए ही कहा जाता है घट प्रकृति है, 'सि' प्रत्यय है और घट: यह पद है। घटं आनय - यह वाक्य है। प्रकृति और प्रत्यय का अकेला उच्चारण न होने से इनका कथन निरर्थक भी नहीं है। .. यदि अर्थ की अभिव्यक्ति नहीं होने से केवल प्रकृति या प्रत्यय अर्थशून्य है - ऐसा कहोगे तो केवल पद भी अनर्थक हो जायेगा। ___ जिस प्रकार प्रत्यय के द्वारा प्रकृति का अर्थ प्रकट होता है, और स्वकीय प्रकृति से प्रत्यय का अर्थ व्यक्त होता है। अर्थात् - तिप् प्रत्यय से पठ् धातु का अर्थ पढ़ना प्रकट हो जाता है और पठ् धातु से 'तिप्' प्रत्यय का अर्थ कर्ता एकवचन वर्तमान काल यह व्यक्त होता है। इसलिए केवल प्रत्यय या प्रकति का प्रयोग करना युक्त नहीं है। तथा प्रकृति और प्रत्यय के समान ही देवदत्त बैठा है, वह लिखता है - इत्यादि प्रयोगों में 'सुबन्त' पद के अर्थ की तिङन्त के द्वारा अभिव्यक्ति होने से और “तिङन्त" पद के अर्थ की 'सुबन्त' के द्वारा अभिव्यक्ति होने से केवल तिङन्त या केवल अकेले सुबन्त का प्रयोग करना भी योग्य (उचित) नहीं है। केवल ‘सुबन्त' या “तिङन्त' पद का अर्थ प्रकट नहीं है, यह भी जान लिया जाता है। पद के अभिव्यक्त अर्थ का अभाव है, यह जान लिया जाता है। यदि कहो कि अन्य पद की अपेक्षा रखने से सार्थक है,तब तो हम भी कह सकते हैं कि इस प्रकार तो प्रकृति की अपेक्षा प्रत्यय को और प्रत्यय की अपेक्षा रखने वाला प्रकृति आदि के समान स्वके ही सार्थकपना सिद्ध कर देता है। इन दोनों में सर्वथा विशेषता का अभाव ही है। भावार्थ - परस्पर में अपेक्षा रखने वाले प्रत्यय और प्रकृति के समान एक पद को भी दूसरे पद की अपेक्षा रखना अनिवार्य है। इसलिए असंगत वर्ण और पदों को निरर्थक चाहने (कहने) वाले नैयायिकों को असंगत अर्थ वाले (परस्पर निरपेक्ष वर्ण वाले) वाक्यों को भी निरर्थक स्वीकार करना चाहिए। यदि नैयायिक उस असंगत अर्थ वाले वाक्यों के निरर्थकत्व को अपार्थक निग्रहस्थान से भिन्न दूसरा निग्रह स्थान इष्ट नहीं करेंगे, तो वर्णों का निरर्थकपना और पदों के निरर्थकपने के भी अपार्थक से भिन्नत्व निग्रहाधिकरणत्व नहीं हो सकता। जो भी नैयायिक ने “प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त, उपनय और निगमन रूप अवयवों का विपरीत रूप से कथन करना अवयव विपर्यास वचन अप्राप्त काल निग्रहस्थान है"-ऐसा कहा है, वह भी सुघट नहीं है (घटित नहीं होता है)। इसी को विद्यानन्द आचार्य कहते हैं -