Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

Previous | Next

Page 245
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 232 नैरर्थक्यं हि वर्णानां यथा तद्वत्पदातिषु। नाभिद्येतान्यथा वाक्यं नैरर्थक्यं ततोपरम् // 212 // न हि परस्परमसंगतानि पदान्येव न पुनर्वाक्यानीति शक्यं वक्तुं, तेषामपि पौर्वापर्येणापि प्रयुज्यमानानां बहुलमुपलभात्। “शंखः कदल्यां कदली च भेर्यां तस्यां च भेर्यां सुमहद्विमानं / तच्छंखभेरी कदली विमानमुन्मत्तगंगप्रतिमं बभूव // " इत्यादिवत्। यदि पुन: पदनैरर्थक्यमेव वाक्यनैरर्थक्यं पदसमुदायत्वाद्वाक्यस्येति मतिस्तदा वर्णनैरर्थक्यमेव पदनैरर्थक्यमस्तु वर्णसमुदायत्वात्पदस्येति मन्यतां, वर्णानां सर्वत्र निरर्थकत्वात्पदस्य निरर्थकत्वप्रसंग इति चेत्, पदस्यापि निरर्थकत्वात्तत्समुदायात्मनो वाक्यस्यापि निरर्थकत्वानुषंगः / पदार्थापेक्षया सार्थकं पदमिति चेत्, वार्थापेक्षया वर्णः सार्थकोस्तु / प्रकृतिप्रत्ययादिवर्णवत् न प्रकृति: केवला पदं प्रत्ययो वा, नापि तयोरनर्थकत्वमभिव्यक्तार्थाभावादनर्थकत्वे पदस्याप्यनर्थकत्वं / यथैव हि प्रकृत्यर्थः प्रत्ययेनाभिभिद्यते जिस प्रकार निरर्थक निग्रहस्थान में ज ब ग ड़ आदि वर्णों का निरर्थकपना है, उसी प्रकार यहाँ पद आदि में भी वर्गों के समुदाय पदों का साध्य उपयोगी अर्थ से रहित है। अतः निरर्थक निग्रहस्थान से पृथक् अपार्थक नामक निग्रहस्थान नहीं है। अन्यथा (वर्णों की निरर्थकता से पदों की निरर्थकता को पृथक् निग्रह स्थान माना जायेगा तब तो) उससे पृथक् वाक्यों का निरर्थकपना स्वरूप वाक्य नैरर्थक्य नामक निग्रह स्थान भी पृथक् मानना पड़ेगा, जो नैयायिकों के सिद्धान्त में पृथक्भूत नहीं माना है, अर्थात् नैयायिकों ने वाक्यनैरर्थक्य नामक निग्रह स्थान नहीं माना है॥२१२॥ परस्पर संगति नहीं रखने वाले पद होते हैं और परस्पर असम्बद्ध वाक्य नहीं होते हैं - ऐसा भी कहना शक्य नहीं है, क्योंकि पूर्वापर सम्बन्ध रहित प्रयोग किये गए बहुत से वाक्यों की उपलब्धि होती है। जैसे शंख केले में है और नगाड़े में केला है। उस भेरी में सुमहद् विमान है। शंख, भेरी, केला, विमान, उन्मत्त, गंगा समान होते हैं। इस प्रकार और भी अनेक वाक्य परस्पर सम्बन्ध रहित होते हैं। यदि कहो कि पदों का निरर्थकपना ही वाक्यों का निरर्थकपना है, क्योंकि पदों का समुदाय ही वाक्य होता है। इसलिए अपार्थक से भिन्न वाक्य निरर्थक नामक निग्रहस्थान नहीं है। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा मानने पर तो वर्णों का निरर्थकपना ही पद का निरर्थकपना हो जायेगा। क्योंकि वर्गों का समुदाय ही पद है। ऐसा मानना चाहिए। इसलिए निरर्थक निग्रहस्थान से भिन्न अपार्थक निग्रहस्थान नहीं मानना चाहिए। ___ “क ख" आदि अकेले वर्ण निरर्थक होते हैं, इसलिए निरर्थक वर्णों के समुदाय रूप पद के भी निरर्थक होने का प्रसंग आता है। ऐसा कहने पर तो “वस्त्रं या आनय" आदि पदों के भी निरर्थकपना होने से उन पदों के समुदाय रूप वाक्य को भी निरर्थकपने का प्रसंग आयेगा। “पद के अर्थ की अपेक्षा पद सार्थक है" ऐसा कहने पर तो वर्णार्थ की अपेक्षा वर्ण सार्थक हो सकता है। अर्थात् एकाक्षरी कोश के अनुसार एक वर्ण का भी अर्थ प्रसिद्ध है। जैसे “ई” लक्ष्मी, "अ" ब्रह्मा इत्यादि / तथा जैसे प्रकृति, प्रत्यय आदि वर्णों का अर्थ भिन्न है। अर्थात् - जैसे घट प्रकृति का अर्थ कम्बु ग्रीवादिमान व्यक्ति है और “सि" विभक्ति का अर्थ एकत्व संख्या है। गम्ल प्रकृति का अर्थ “गमन" है। तिप् का अर्थ एकत्व स्वतंत्र कर्ता है। इसलिए वर्ण भी अपना स्वतंत्र अर्थ रखता है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358