________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 234 संधाद्यवयवान्यायाद्विपर्यासेन भाषणम् / अप्राप्तकालमाख्यातं तच्चायुक्तं मनीषिणाम् / 213 // पदानां क्रमनियम विनार्थाध्यवसायतः / देवदत्तादिवाक्येषु शास्त्रेष्वेवं विनिर्णयात् // 214 // यथापशब्दतः शब्दप्रत्ययादर्थनिश्चयः। शब्दादेव तथाश्वादिव्युत्क्रमाच्च क्रमस्य वित् 215 // ततो वाक्यार्थनिर्णीति: पारंपर्येण जायते। विपर्यासात्तु नैवेति केचिदाहुस्तदप्यसत् // 216 // व्युत्क्रमादर्थनिर्णीतिरपशब्दादिवेत्यपि। वक्तुं शक्तेस्तथा दृष्टेः सर्वथाप्यविशेषतः॥२१७॥ प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण आदि अवयवों के कथन करने के न्याय मार्ग से विपरीत कथन करना अप्राप्त काल नामक निग्रहस्थान कहा था। परन्तु वह निग्रहस्थान न्याय बुद्धि के धारक बुद्धिमानों के सम्मुख अयुक्त है (उचित नहीं है)। क्योंकि पदों के क्रम के नियम के बिना भी अर्थ का निर्णय हो जाता है। जैसे देवदत्तादि लौकिक वाक्यों में पदों का क्रम भंग हो जाने से अर्थ की प्रतिपत्ति हो जाती है। इसी प्रकार शास्त्रीय वाक्योंमें भी अनुमान के अवयवों के क्रम का भंग होने से अर्थ का निर्णय हो जाता है। भावार्थ - जैसे लौकिक वाक्य में “राम वन को जाते हैं", "जाते हैं राम वन को” “राम जाते हैं वन को" इत्यादि क्रम को भंग करके (भी) वाक्यों का उच्चारण करने पर भी यह निश्चय होता है कि राम वन को जाते हैं।' इसी प्रकार शास्त्रार्थ में भी “पर्वत अग्निवाला है धुआँ वाला होने से", "धुआँ वाला होने से पर्वत अग्नि वाला है" इस प्रकार प्रतिज्ञा हेतु आदि का क्रमभंग हो जाने पर भी अर्थ का विशेष रूप से निर्णय हो जाता है। जैसे पद्यात्मकछन्दों को क्रम वा अक्रम से सुनकर संगत अर्थ की शीघ्र ही प्रतिपत्ति हो जाती है। अत: अप्राप्त काल नामक निग्रहस्थान सिद्ध नहीं होता है।।२१३-२१४॥ जिस प्रकार अप (अशुद्ध या अपभ्रष्ट) शब्द से समीचीन शब्दों का ज्ञान होकर पुनः शुद्ध शब्द प्रत्यय से जो अर्थ का निश्चय होता है, उसे शुद्ध शब्दों से ही वाक्यार्थ का ज्ञान हुआ है - ऐसा मानना चाहिए। अर्थात् जैसे कुक्कुर, गैया आदि अपभ्रंश शब्द सुनकर कुत्ता तथा गाय शब्द की प्रतिपत्ति हो जाती है, उसी प्रकार अश्व, जिनदत्त आदि पदों के अक्रम से उच्चारण करने पर भी पंदों के क्रम का ज्ञान हो जाता है और तदनन्तर परम्परा से वाक्य के अर्थ का निर्णय हो जाता है। पदों की विपरीतंता से किसी भी वाक्य के अर्थ की प्रतिपत्ति नहीं होती है। ऐसा कोई (नैयायिक) कहते हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि नैयायिक का यह कथन समीचीन नहीं है // 215-216 // जैसे क्रम रहित अपशब्द से असभ्य पुरुषों को अर्थ का निर्णय हो जाता है, उसी प्रकार कर्ता, कर्म, या प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन का क्रम से उच्चारण नहीं होने पर अर्थ की प्रतिपत्ति हो जाती है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा हम कह सकते हैं। क्योंकि उच्चारित किये गये जिस शब्द से जिस अर्थ में प्रतीति होती देखी जाती है, वही शब्द उसका वाचक है, अन्य नहीं। अत: जैसे क्रम से प्रतिज्ञा आदि उच्चारण करने से जैसे अर्थ की प्रतीति होती है, वैसे ही अक्रम उच्चारण करने से होती है। क्योंकि इन दोनों में (क्रम से उच्चारण और अक्रम से उच्चारण) सर्वथा अविशेषता (कोई विशेषता नहीं) है। अथवा शास्त्रीय प्रयोग में और लौकिक प्रयोग में सर्वथा कोई विशेषता नहीं है। अर्थात् धूमात् वह्निवान् पर्वतः, वह्निवान् पर्वतो धूमात्, खा लो रोटी वा रोटी खा लो - इत्यादि वाक्यों में पदों का क्रम से विन्यास नहीं होते हुए भी अर्थबोध समीचीन होता है॥२१७॥