Book Title: Tattvarthashloakvartikalankar Part 04
Author(s): Suparshvamati Mataji
Publisher: Suparshvamati Mataji

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Page 226
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 213 घटोऽसर्वगतो यद्वत्तथा शब्दोप्यसर्वगः / तद्वदेवास्तु नित्योयमिति धर्मविकल्पनात् // 129 // सामान्ये.द्रियत्वस्य सर्वगत्वोपदर्शितं / व्यभिचारेपि पूर्वस्याः प्रतिज्ञायाः प्रसिद्धये // 130 // शब्दोऽसर्वगतस्तावदिति सत्त्वांतरं कृतम् / तच्च तत्साधनाशक्तमिति भाष्ये न निग्रहः // 131 // अनित्यः शब्दः ऐंद्रियकत्वाघटवदित्येक: सामान्यमैंद्रियकं नित्यं कस्मान्न तथा शब्द इति द्वितीयः / साधनस्थानकांतिकत्वं सामान्येनोद्भावयति तेन प्रतिज्ञातार्थस्य प्रतिषेधे सति तं दोषमनुद्धरन धर्मविकल्प करोति, सोयं शब्दोऽसर्वगतो घटवदाहोस्वित्सर्वगतः सामान्यवदिति? यद्यसर्वगतो घटवत्तदा तद्वदेवानित्योस्त्विति ब्रूते। सोयं सर्वगतत्वासर्वगतत्वधर्मविकल्पात्तदर्थनिर्देशः प्रतिज्ञांतरं अनित्यः शब्द इति प्रतिज्ञातोऽसर्वगतो अनित्यः शब्द इति प्रतिज्ञाया अन्यत्वात्। तदिदं निग्रहस्थानं साधनसामर्थ्यापरिज्ञानाद्वादिनः / न चोत्तरप्रतिज्ञापूर्वप्रतिज्ञां साधयत्यतिप्रसंगात् इति परस्याकूतं / / जिस प्रकार घट असर्वगत है, उसी प्रकार शब्द भी असर्वगत है, उस ऐन्द्रियक सामान्य के समान यह शब्द नित्य भी है। इस प्रकार धर्म की विकल्पना करने से ऐन्द्रियकत्व हेतु का सामान्य जाति के साथ व्यभिचार हो जाने पर वादी द्वारा स्वकीय पूर्व की प्रतिज्ञा की प्रसिद्धि के लिए शब्द का सर्वव्यापकपना विकल्प दिखलाया गया है कि तब तो शब्द असर्वगत हो जाए। इस प्रकार वादी ने दूसरी प्रतिज्ञा की। परन्तु, वह दूसरी प्रतिज्ञा उस अपने प्रकृत पक्ष को साधने में समर्थ नहीं है (इस प्रकार भाष्य ग्रन्थ में वादी का निग्रह होना माना जाता है। किन्तु यह प्रशस्त मार्ग नहीं है)॥१२९-१३१॥ शब्द अनित्य है बहिरंग इन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य होने से घट के समान / इस प्रकार वादी के कहने पर प्रतिवादी ने शब्द के अनित्यपने का खण्डन किया कि शब्द नित्य है इन्द्रियजन्य ज्ञान का विषय होने से, जैसे सामान्य। अतः सामान्य के समान शब्द भी नित्य क्यों नहीं होगा? इस प्रकार दूसरा प्रतिवादी कहता है। यह कथन ऐन्द्रियिकत्व हेतु का सामान्य के द्वारा व्यभिचार दोष होने से प्रतिवादी के द्वारा उद्भावन किया जाता है। इसलिए ऐसी दशा में वादी के प्रतिज्ञात अर्थ का उस प्रतिवादी द्वारा निषेध हो जाने पर वादी उस व्यभिचार दोष का उद्धार (उद्भावन) नहीं करता हुआ धर्म (पक्ष) के विकल्प को करता है कि क्या है? शब्द घट आदि के समान अव्यापक है (असर्वगत है कि) सामान्य के समान सर्वगत (सर्व व्यापक) है? यदि घट के समान शब्द असर्वगत है तब तो घट के समान वह शब्द अनित्य भी है। ऐसा वादी कहता है। तब वादी शब्द के सर्वगत और असर्वगत धर्मों के विकल्प से उस प्रतिज्ञात अर्थ का कथन करता है, यह वादी का निर्देश दूसरी प्रतिज्ञा करना होने से प्रतिज्ञान्तर है। क्योंकि पूर्व प्रतिज्ञा (पक्ष) थी कि “शब्द अनित्य है" इस प्रतिज्ञा से “शब्द अव्यापक है, अनित्य होने से।" यह दूसरी प्रतिज्ञा है। अर्थात् प्रथम प्रतिज्ञा में शब्द को अनित्य सिद्ध करना है। दूसरी प्रतिज्ञा में शब्द को अव्यापक सिद्ध कर रहे हैं। यह पूर्व प्रतिज्ञा से भिन्न (अन्य) है। इसलिए यह वादी का प्रतिज्ञान्तर नामक निग्रह स्थान है। क्योंकि वादी को अपने प्रयुक्त हेतु के सामर्थ्य का परिज्ञान नहीं है। उत्तर काल में की गई अपूर्व (दूसरी) प्रतिज्ञा पूर्व की प्रतिज्ञा को सिद्ध नहीं करती है। यदि दूसरी प्रतिज्ञा पूर्व प्रतिज्ञा को सिद्ध करती है तो अतिप्रसंग दोष आता है।

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