________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 218 हेतुः प्रतिज्ञया यत्र बाध्यते हेतुदुष्टता। तत्र सिद्धान्यथा संधाविरोधोतिप्रसज्यते॥१४९॥ सर्वं पृथक् समुदाय: भावशब्दप्रयोगतः / इत्यत्र सिद्धया भेदसंधया यदि बाध्यते // 150 // हेतुस्तत्र प्रसिद्धन हेतुना सापि बाध्यता। प्रतिज्ञावत्परस्यापि हेतुसिद्धेरभेदतः // 151 // भावशब्दः समूहं हि यस्यैकं वक्ति वास्तवं / तस्य सर्वं पृथक्तत्त्वमिति संधाधिहन्यते // 152 // विरुद्धसाधनाद्वायं विरुद्धो हेतुरागतः। समूहावास्तवे हेतुदोषो नैकोपि पूर्वकः // 153 // सर्वथा भेदिनो नानार्थेषु शब्दप्रयोगतः। प्रकल्पितसमूहेष्वित्येवं हेत्वर्थनिश्चयात् // 154 // तथा सति विरोधोयं तद्धेतो: संधया स्थितः। संधाहानिस्तु सिद्धेयं हेतुना तत्प्रबाधनात् / 155 / जिस अनुमान में प्रतिज्ञा के द्वारा हेतु बाधित हो जाता है, वहाँ हेतु का दुष्टपना सिद्ध है। (उससे हेतु सदोष होता है, प्रतिज्ञा दूषित नहीं होती)। अन्यथा (यदि हेतु का दोष प्रतिज्ञा को दिया जायेगा तो) प्रतिज्ञा विरोध में अतिप्रसंग दोष आयेगा। अर्थात् प्रतिज्ञाविरोध को हेतुविरोध में गर्भित कर सकेंगे और हेतु, दृष्टान्त, उपनय, निगमन के दोष प्रतिज्ञा को दे सकेंगे॥१४९॥ सम्पूर्ण पदार्थ पृथक्-पृथक् हैं, क्योंकि समुदाय में भाव शब्द का प्रयोग होता है। इस अनुमान में प्रसिद्ध भेदसिद्धि की प्रतिज्ञा के द्वारा यदि समुदाय में भाव शब्द का कथन करना रूप हेतु बाधित कर दिया जाता है, तो प्रमाणसिद्ध हेतु के द्वारा प्रतिज्ञा भी बाधित हो जाती है। क्योंकि जैसे नैयायिकों के, पदार्थों की पृथक्-पृथक् सिद्धि करने वाली प्रतिज्ञा की प्रमाण से सिद्धि है, वैसे ही जैन सिद्धान्त में अपर संग्रह नय की अपेक्षा पदार्थों को समुदाय रूप सिद्ध करने वाले हेतु की भी प्रमाण से सिद्धि है। हेतु और प्रतिज्ञा में कोई भेद (विशेषता) नहीं है अर्थात् भगवती आहती नीति के अनुसार कथंचित् शब्द का प्रयोग कर लेने पर पृथक् भाव के द्वारा समुदाय में कोई विरोध नहीं आता है। ____जिन अद्वैतवादियों के यहाँ भाव (सत्) शब्द वस्तुभूत एक समुदाय को ही कहता है, उनके यहाँ “सम्पूर्ण पदार्थ पृथक्-पृथक् हैं" इस प्रकार की प्रतिज्ञा नष्ट हो जाती है अर्थात् प्रसिद्ध हेतु के द्वारा प्रतिज्ञा का बाधित हो जाना प्रतीति सिद्ध है॥१५०-१५२॥ ___ अथवा, वादी के द्वारा कथित यह हेतु प्रतिज्ञा से विरुद्ध साध्य को सिद्ध करने वाला होने से विरुद्ध हेतु सिद्ध हुआ है (विरुद्ध हेत्वाभास है)। तथा समूह के अवास्तव होने से पूर्ववर्ती एक भी हेतु का दोष वादी के ऊपर लागू नहीं हो सकता। अर्थात् बौद्ध समुदाय को वास्तविक नहीं मानता है। बौद्ध सिद्धान्त में संतान, समुदाय, अवयवी ये सब कल्पित माने गये हैं। नैयायिक, जैन और मीमांसक समुदाय को वस्तुभूत मानते हैं। क्योंकि बौद्ध सिद्धान्त में सम्पूर्ण पदार्थ सर्वथा भिन्न-भिन्न (भेद सहित) हैं। इसलिए सर्वथा भेदवादी बौद्ध के मिथ्या वासनाओं के द्वारा कल्पित समूह रूप नाना अर्थों (वास्तव में भिन्न-भिन्न अनेक पदार्थों) में भाव शब्द का प्रयोग होता है। ऐसा माना है। इसलिए इस प्रकार हेतु के अर्थ का निश्चय हो जाने से कोई दोष नहीं है। यदि समुदाय वास्तविक पदार्थ है, तब तो हेतु का प्रतिज्ञावाक्य के द्वारा यह विरोध स्थित है। तथा हेतु के द्वारा प्रतिज्ञावाक्य की बाधा (छेद) हो जाने से यह प्रतिज्ञा हानि भी सिद्ध हो जाती है॥१५३-१५५ // इसलिए हेतु विरोध (हेत्वाभास) को प्रतिज्ञा विरोध कहना उचित नहीं है।